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पांचवाँ बोल सिद्ध पूर्ण परमात्मा हो गये हैं; उसीप्रकार तू भी स्वयं में श्रद्धा-ज्ञान करके स्वसंवेदन प्रगट कर तो उस (स्वसंवेदन) ज्ञानपूर्वक अनुमान कर सकेगा कि सर्वज्ञ भगवान पूर्णदशा को प्राप्त हुए हैं।
पुण्य, व्यवहार और विकल्प की एकता रहित और ज्ञाता-दृष्टा शुद्ध स्वभाव की एकता सहित ज्ञान, यही ज्ञान यथार्थ है, ऐसा तू जान। ऐसा स्वसंवेदन ज्ञान होने के पश्चात् यथार्थ अनुमानज्ञात होता है कि सर्वज्ञ पूर्णपद को प्राप्त हो गये है तथा साधक आंशिक रूप से साधना कर रहे हैं और आगे बढ़कर उस पूर्णपद को प्राप्त करेंगे। इसप्रकार पंचपरमेष्ठियों का, जोकि पर आत्मायें हैं, उनका ऐसा प्रमेय-धर्म है, ऐसा तू जान। ___ पंचपरमेष्ठियों का प्रमेय-धर्म ऐसा है, इसप्रकार जो जीव जानता है, उसने पंचपरमेष्ठियों को यथार्थ रूप से पहिचाना है और उसने ही सच्चा भाव नमस्कार किया है।
प्रश्न : इतना सब विस्तार जानने में तो हमारी मानी हुई सब क्रियाएं समाप्त हो जायेंगी?
उत्तर : भाई! तुझे शांति और सुख चाहिये न? धर्म करना है न? धर्म कहो, शांति कहो, सुख कहो – ये सब एक ही हैं। वह शांति, सत्यवस्तु की शरण से मिलती है, परन्तु असत्यवस्तु की शरण से नहीं मिलती है। अतः वस्तु जिसप्रकार है उसीप्रकार सत्य जान और स्वसंवेदनज्ञान द्वारा अपने शुद्ध आत्मा का अनुभव कर। यही शांति का कारण है और यही बढ़ते-बढ़ते परिपूर्ण केवलज्ञान होकर सम्पूर्ण सुख और शांति प्रगट होगी, यही धार्मिक क्रिया है। बोल ५ : आत्मा मात्र अनुमान करनेवाला ही नहीं है, ऐसा तू जान। ___ चौथे बोल में कहा था कि अन्य जीव तेरे आत्मा को अथवा पंचपरमेष्ठी के आत्मा को मात्र अनुमान द्वारा जानने का प्रयत्न करें तो वे ज्ञात नहीं होंगे। अब यहाँ पाँचवें बोल में कहते हैं कि तू स्वयं कैसा है? तू केवल अनुमान करनेवाला ही नहीं है। आत्मा मात्र अनुमान करनेवाला हो तो अनुमानरहित प्रत्यक्ष केवलज्ञान प्रगट करने का अवसर नहीं आयेगा। जिसप्रकार जो पुण्यपाप भाव का ही मात्र कर्ता और उसी को सर्वस्व माननेवाला है, उसे