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पांचवाँ बोल
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अनुमानज्ञान करके ज्ञान विस्तृत करें और इस आत्मा की पहिचान करें तो ठीक है, परन्तु अन्य जीव स्वसंवेदन बिना मात्र अनुमान से इस आत्मा को पहिचानने जायें तो उनके द्वारा यह आत्मा ज्ञात हो, ऐसा यह ज्ञेय पदार्थ नहीं है।
पांचवाँ बोल
न लिंगादेव परेषां ग्रहणं यस्येत्युनमातृमात्रत्वाभावस्य ।
अर्थ :- जिसके लिंग से ही पर का ग्रहण नहीं होता वह अलिंगग्रहण है; इसप्रकार ‘आत्मा अनुमातामात्र (केवल अनुमान करनेवाला ही) नहीं है ' ऐसे अर्थ की प्राप्ति होती है ।
आत्मा केवल अनुमान से ही जाने, ऐसा यह ज्ञेयपदार्थ नहीं है ।
इस पाँचवें बोल में अलिंगग्रहण का अर्थ इसप्रकार है - अ नहीं, लिंग = अनुमान ज्ञान, ग्रहण = जानना । आत्मा मात्र अनुमानज्ञान से स्वयं को अथवा पर को जाने, ऐसा नहीं है। अतः स्व और पर दोनों को जानने के लिए प्रत्यक्ष स्वसंवेदनज्ञान होना चाहिये। आत्मा स्वयं मात्र अनुमान करनेवाला हो तो कभी भी प्रत्यक्षज्ञान प्रगट नहीं कर सकता । अनुमानज्ञान तो है, परन्तु मात्र अनुमान ज्ञान से प्रत्यक्ष होना माने तो वह यथार्थ नहीं है। अनुमान के साथ आंशिक स्वसंवेदनज्ञान है, वह प्रत्यक्ष है और वह बढ़कर संपूर्ण प्रत्यक्ष ऐसा केवलज्ञान होता है और तब अनुमान का अभाव होता है । अतः यहाँ मात्र अनुमान से नहीं जानता है, ऐसा कहा है।
स्वसंवेदन ज्ञान बिना परपदार्थों का ज्ञान यथार्थ नहीं है।
आत्मा स्वयं को तो अनुमान से नहीं जानता है; परन्तु अन्य जीवों को, शरीर को तथा परपदार्थों को मात्र अनुमान से जाने, ऐसा भी उसका स्वभाव नहीं है। केवल अनुमानज्ञान से पर पदार्थों का ज्ञान करना, वह यथार्थ ज्ञान नहीं है । इसप्रकार आत्मा केवल अनुमान करनेवाला ही नहीं है; ऐसे भाव की प्राप्ति होती है।
देव, गुरु, स्त्री, कुटुम्ब, परिवार तथा निगोद से लेकर सिद्ध तक के सभी जीवों को केवल अनुमान से जान ले, ऐसा उन ज्ञेयों का स्वभाव नहीं है