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अलिंगग्रहण प्रवचन स्वयं की ऐसी योग्यता भी नहीं है, ऐसा जानना। समय-समय की समझने की पर्याय तो सत् है। वह पर्याय कान तथा शब्द के कारण नहीं है। उसमें उतनी समझने की योग्यता ही नहीं है अर्थात् 'बात कानों में नहीं पड़ी है, ऐसा कहने में आया है। यह बात जिसके कानों में पड़े और अपने कारण से समझे तो भी वह ज्ञान खंड-खंड वाला है। उससे भी अखंड आत्मा का लाभ नहीं है; क्योंकि अंश से अंशी का लाभ नहीं हो सकता।
खंड-खंड अपूर्ण ज्ञान की योग्यता पर से लक्ष उठा कर अखंड परिपूर्ण आत्मा पर लक्ष करे तो आत्मा को धर्म होता है। तो फिर जिसने खंड-खंड ज्ञानवाली योग्यता भी प्राप्त नहीं की है, जिसको निमित्तरूप से अविरोध वाणी कानों में पड़ी नहीं है अर्थात् व्यवहार से देशना लब्धि का निमित्त प्राप्त नहीं हुआ है, उसे तो धर्म कहाँ से हो? अर्थात् ऐसे जीव को कभी धर्म होगा ही नहीं, यह कहने का भाव है। ऐसा कहकर यहाँ भी उस जीव की योग्यता बतलाना है। आत्मा इन्द्रिय प्रत्यक्ष का विषय नहीं है।
इसप्रकार आत्मा अलिंगग्रहण है। आत्मा इन्द्रियों से ग्राह्य नहीं है अर्थात् इन्द्रियों से ज्ञात होने योग्य नहीं है। अतः आत्मा इन्द्रिय प्रत्यक्ष का विषय नहीं है, ऐसे अर्थ की प्राप्ति होती है। ___ अज्ञानी जीव मानता है कि पर बिना, शब्द बिना, कान बिना आत्मा ज्ञात नहीं होता; परन्तु उसकी मान्यता मिथ्या है। यह मान्यता ही आत्मस्वभाव से विपरीत है। पर बिना ही ज्ञान हो, ऐसा स्वभाव है। आत्मा इंद्रिय प्रत्यक्ष का विषय नहीं है; परन्तु ज्ञान प्रत्यक्ष का विषय है, उसमें से ऐसा भाव निकलता है।
इन्द्रियों के आश्रय से आत्मा ज्ञात नहीं होता; परन्तु आत्मा के आश्रय से आत्मा ज्ञात होता है, ऐसा ध्यान आते ही इन्द्रियों की ओर का लक्ष्य छूट जाता है और अपने ज्ञानस्वभाव प्रत्यक्ष का श्रद्धा-ज्ञान होने पर धर्म होता है।