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प्रवचनसार गाथा १७२
दूसरा प्रवचन
माघ कृष्णा ३,
शनिवार, दि. २४/२/१९५१ जीव को अजीव से भिन्न करने का साधन - चेतनामयत्व
पुद्गल से आत्मा को भिन्न करने का साधन कहा। अब पुद्गल तथा अपुद्गल अर्थात् धर्म, अधर्म, आकाश और काल - इन चार अजीव द्रव्यों से आत्मा को भिन्न करने का साधन-चेतनागुणमयत्व कहते हैं। पुद्गल तथा अन्य अजीव से भिन्न करने का साधन विकार, काम, क्रोध इत्यादि को नहीं कहा है। चेतना गुण है और चेतन गुणी है। आत्मा जानने-देखने के स्वभाव से अभेद है और उस साधन के द्वारा उसे सर्व अजीव से भिन्न करना धर्म है। जीव को अन्य जीवों से भिन्न करने का साधन स्वद्रव्याश्रित चेतनामयत्व ___आत्मा को सर्वप्रथम पुद्गलों से भिन्न किया। पश्चात् अन्य अजीवों से भिन्न किया। अब अन्य जीवों से भिन्न करते हैं । अपना चेतनागुण अपने आत्मा के आश्रय से है, अन्य आत्मा के आश्रय नहीं है। वह स्वयं का चेतना गुण स्वयं को अनंत केवली, सिद्ध, अनंत निगोद इत्यादि अनंत जीवों से भिन्न करता है, क्योंकि स्वयं का चेतना गुण स्वयं का स्वलक्षण है। उसको सदा स्वयं धारण कर रखता है। साधकदशा में धर्म की साधना के लिये चेतना गुण प्रयुक्त होता है।
प्रश्न : इसमें दया पालना कहाँ आया?
उत्तर : अपने चेतनागुण से स्वजीव का निर्णय करना ही स्वदया है। जीव पर की दया पालन नहीं कर सकता है। पर से भिन्न कहा अर्थात् पर का कुछ भी कर सकता है, ऐसा रहा नहीं तथा जीव को दया-दान के लक्षणवाला नहीं कहा है, परन्तु चैतन्यमय कहा है। ऐसा कहने से ही दया-दानादि का विकार क्षणिक है, वह त्रिकाली स्वभाव में नहीं है, ऐसा निर्णय होता है। पर को तथा स्व को एक मानना, संसारमार्ग है और स्वयं को पर से भिन्न साधना, वह मोक्षमार्ग है।