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चैतन्य की चहल-पहल
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यातना ज्ञान को कैसी ? इस प्रकार ज्ञान के वज्र कपाटों का भेदन करके कोई ज्ञान स्वभाव में प्रविष्ट ही नहीं हो पाता । अतः ज्ञान त्रिकाल शुद्ध, एकरूप ही रहता है। इसी ज्ञान के शुद्ध एकत्व में प्रतिष्ठित होकर ज्ञानी शुद्ध अनुभूति के बल से निरन्तर कर्मों का क्षय करता हुआ मुक्ति के पावन पथ पर बढ़ता चलता है और अन्त में मुक्ति उसका वरण कर लेती है ।
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वस्तुतः ज्ञानी को मुक्ति की भी चाह नहीं है ज्ञान तो त्रिकाल मुक्त ही है। उसे नई मुक्ति अथवा सिद्ध दशा की भी अपेक्षा नहीं है। ज्ञान तो जगत् के द्रव्य-क्षेत्र - काल-भाव से सदा ही मुक्त पड़ा है। ज्ञान तो नरक में भी मुक्त ही है । वह सदा ज्ञायक ही तो है । इसके अतिरिक्त अन्य कुछ भी कल्पना उसके प्रति व्यर्थ है । उसे आस्रव और बंध भी नहीं है फलतः संवर, निर्जरा और मोक्ष भी उसे नहीं है; क्योंकि जो पहिले बँधा हो, उसी के तो छूटने का प्रसंग बन सकता है। जो कभी बँधा ही नहीं, उसकी मुक्ति की वार्ता ही व्यर्थ है । लोक की हर परिस्थिति में 'मैं तो ज्ञान ही हूँ' यह दृष्टि तथा ज्ञान का यह शुद्ध संचेतन भव के कपाटों का भेदन करके मुक्ति के पावन द्वार का उद्घाटन करता है। यही दृष्टि लोक मांगल्य की अधिष्ठात्री है जिसमें पर्याय दृष्टि के सम्पूर्ण क्लेश का अन्त हो जाता है।
विषमतम परिस्थिति में भी आनन्द के मुक्ता बिखेर कर भवप्रसूत चिर दरिद्रता का अन्त करके शान्ति का कोष खोल देने वाली शुद्ध ज्ञान की यह प्रतीति एवं अनुभूति चिर- जयवन्त वर्ते, चिर- जयवन्त वर्ते ।