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चैतन्य की चहल-पहल अथवा व्यवस्था का विषय न होकर दर्पण का अकृत्रिम स्वभाव ही है। उसमें जो भी प्रतिबिम्बित होता है, सब व्यवस्थित ही है; व्यवस्था योग्य नहीं तथा वे प्रतिबिम्ब ममता करने योग्य भी नहीं। क्योंकि उन प्रतिबिम्बों की ममता क्लेशकारिणी है। दर्पण में उन प्रतिबिम्बों के आगमन पर ज्यों ही हम हर्षित होंगे, दर्पण से उनका विलय हमें शोक-सागर में निमग्न कर देगा।
अतः दर्पण विशेष की दृष्टि से उत्पन्न कल्पित हर्ष-शोक का अन्त दर्पण सामान्य की दृष्टि से ही सम्भव है, अन्य कोई पथ नहीं है। इसी प्रकार ज्ञान में प्रतिबिम्बित अनेक ज्ञेयाकार रूप ज्ञान के विशेषों में यद्यपि ज्ञान सामान्य की ही व्याप्ति है ज्ञेय की व्याप्ति नहीं, किन्तु ज्ञान के वे विशेष वास्तव में आत्मा के लिये जानने मात्र के अतिरिक्त अन्य कुछ भी प्रयोजन की वस्तु नहीं हैं। .. ज्ञान में वे स्वत: ही सहज भाव से निर्मित होते रहते हैं, यथा - ज्ञान में जो घट परिणत हुआ वह घटाकार स्वयं ज्ञान ही है, किन्तु आत्मा उस घटाकार ज्ञान का क्या करे ? अतः निरन्तर 'मैं तो ज्ञान ही हूँ घट नहीं' यह सामान्य की दृष्टि एवं अनुभूति ही शांति प्रदायिनी है।
ज्ञान-स्वभाव की प्रतीति अनन्त प्रश्नों, अगणित घटनाचक्रों तथा असंख्य परिस्थितियों का एकमात्र समाधान है। उस दृष्टि में शुद्ध अखण्ड एकरूप ज्ञान के अतिरिक्त आत्मा में कुछ भासित ही नहीं होता। 'मैं तो ज्ञान का ध्रुव-तारा हूँ इसमें आत्मा के साथ देह, कर्म और राग का संबंध भी कहाँ रहा ? राग तो आत्मा और कर्म की संयोगी दृष्टि में भासित होता