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________________ चैतन्य की चहल-पहल 54 साक्षात् अग्नि नहीं वरन् वह तो दर्पण की अपनी अग्नि है। वह दर्पण की अपनी पर्याय है। अतः वस्तुतः वह दर्पण ही है । दर्पण में प्रतिबिंबित अग्नि की रचना के नियामक उपादान दर्पण के अपने स्वतंत्र हैं। अपनी अग्नि की रचना में दर्पण ने बाह्य अग्नि से कुछ भी सहयोग नहीं लिया है। यह अग्नि दर्पण की अपनी स्वतंत्र सृष्टि एवं संपत्ति है । दर्पण की अग्नि का आकार बाह्य अग्नि तुल्य होते हुए भी बाह्य अग्नि इसमें रंचमात्र भी कारण नहीं है, तथा बाह्य अग्नि जल रही है, इसलिये दर्पण में अग्नि प्रतिबिंबित हो रही है. यह भी नितांत असत्य है । यदि ऐसा स्वीकार कर लिया जाए तो वस्तुओं को प्रतिबिंबित करना दर्पण का स्वभाव नहीं रह जाएगा । दर्पण का स्वभाव अग्नि सापेक्ष होकर 'स्वभाव' संज्ञा को खो देगा । वस्तुतः दर्पण के स्वच्छ स्वभाव में यदि अग्न्याकार परिणमन की शक्ति और योग्यता न हो तो सारा विश्व मिलकर भी उसे अग्न्याकार नहीं कर सकता और यदि स्वयं दर्पण में अग्न्याकार होने की शक्ति एवं योग्यता है तो फिर उसे अग्नि की क्या अपेक्षा है ? जो शक्ति शून्य है उसे शक्ति नहीं दी जा सकती और जो शक्तिमय है उसे अपनी शक्ति के प्रयोग में किसी दूसरे की अपेक्षा नहीं होती । जगत् की कोई भी वस्तु पर सापेक्ष रहकर अपना अस्तित्व नहीं रख सकती । यदि दर्पण में प्रतिबिम्बित अग्नि का कारण बाह्य अग्नि है तो पाषाण में भी अग्नि प्रतिबिम्बित होनी चाहिए, किन्तु ऐसा नहीं होता। अतः अपनी अग्नि की रचना की सम्पूर्ण सामग्री दर्पण के अपने अक्षय कोष में ही पड़ी है। उसे किसी से कुछ उधार नहीं लेना पड़ता ।
SR No.007142
Book TitleChaitanya Ki Chahal Pahal
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYugal Jain, Nilima Jain
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year2012
Total Pages66
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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