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सम्यग्दर्शन का विषय (द्वितीय) 'ध्रुव' की मंगलमय बस्ती बसती है और इसीलिये श्रद्धा का यह अद्वैत अनंत आनन्दमय होता है। ____ इस पद्धति में आत्मा को मात्र ध्रुव मानने से उसमें पर्याय का अभाव नहीं हो जाता वरन् ‘ध्रुव एवं ध्रुव की श्रद्धा', 'पूर्ण एवं पूर्ण का अहं', इस प्रकार दोनों अंशों की निरपेक्ष पूर्णता में आत्म-पदार्थ द्रव्यपर्यायस्वरूप पूर्ण ही बना रहता है, जैसे शरीर के प्रत्येक अंग की पूर्णता ही शरीर की पूर्णता है। यदि शरीर के सभी अंग अधूरे हों तो सब अधूरें अंगों से एक पूर्ण शरीर तो निष्पन्न नहीं हो सकता। इसी प्रकार ‘आधा . द्रव्य एवं आधी पर्याय' यह पदार्थ का स्वरूप नहीं वरन् ‘पूर्ण द्रव्य एवं पूर्ण पर्याय' यह पदार्थ का स्वरूप होता है। . .
वास्तव में ध्रुव को अंश मानने वाली श्रद्धा में पूर्णता की प्रतीति ही नहीं होगी, फलस्वरूप अनुभूति में आनन्द की निष्पत्ति ही नहीं होगी; वरन् अंश अर्थात् अपूर्ण की प्रतीति होने से सदा ही ऐसा लगता रहेगा कि आत्मा में अभी कुछ कमी है। निश्चय ही श्रद्धा आदि वृत्तियों का कार्य ध्रुव आत्मा में कुछ करना नहीं वरन् उसे ध्रुव मात्र मानना होता है। मैं ध्रुव हूँ' यही सम्यग्दर्शन का स्वर है। सम्यग्दर्शन की काया ध्रुव से ही निर्मित है। उसमें सर्वत्र ध्रुव ही पसरा है। अनित्यता उसमें है ही नहीं। उसे विश्व में ध्रुव के अतिरिक्त अन्य सत्ता का स्वीकार ही नहीं है। उसका विश्व ही ध्रुव है।
यदि दृष्टि में ध्रुव के अतिरिक्त अन्य सत्ता का भी स्वीकार हो तो दृष्टि का स्वभाव अहं होने के कारण उसे अन्य सत्ता में अहं हुए बिना नहीं रहेगा और यही अहं मिथ्यादर्शन है।