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सम्यग्दर्शन का विषय (द्वितीय)
41 का अहं नहीं वरन् स्वयं ध्रुव है। इस प्रकार स्वयं सम्यग्दर्शन भी सम्यग्दर्शन की परिधी (ध्रुव) के बाहर रह जाता है और द्रव्य पर्याय स्वरूप पूरे आत्म-पदार्थ में सम्यग्दर्शन का विषय पदार्थ का अनंत गुणात्मक सामान्य द्रव्यांश ही होता है, किन्तु अंश होने से वह अपूर्ण नहीं वरन् स्वयं ही पूर्ण है क्योंकि उसे परद्रव्य एवं अपनी पर्याय की भी कोई अपेक्षा नहीं होने से वह अत्यन्त निरपेक्ष है और इसलिये वह पूर्ण है। दृष्टि (श्रद्धा) भी उसमें अंश की नहीं वरन् पूर्ण की प्रतीति करती हुई स्वयं पूर्ण है। इस प्रकार दोनों अंशों की पूर्णता ही वस्तु की पूर्णता है।
ध्रुव को अंश मानकर श्रद्धा करना प्रकारान्तर से मिथ्यादर्शन ही है। जैसे ग्यारह के अंक में एक के दोनों अंक अपने-अपने में पूर्ण ही हैं। इस प्रकार दोनों की पूर्णता ही ग्यारह की पूर्णता है। यदि एक के दोनों अंक अपूर्ण हों तो ग्यारह का पूर्णांक ही उपलब्ध नहीं होगा, क्योंकि दो अपूर्ण स्वयं तो कभी पूरे होते ही नहीं, किन्तु दोनों मिलकर भी किसी एक पूर्ण स्वरूप को निष्पन्न नहीं कर सकते। यह वस्तु-स्वभाव की स्वयं सिद्ध विलक्षणता ही है।
वास्तव में सम्यग्दर्शन को जो 'ध्रुव का अहं' कहा जाता है वह ज्ञान का व्यवहार है, किन्तु सम्यग्दर्शन स्वयं अपने को 'ध्रुव का अहं' स्वीकार नहीं करता वरन् ध्रुव स्वीकार करता है। अपने समक्ष विद्यमान 'ध्रुव' में 'मैं ध्रुव हूँ ऐसी उसकी अभेद स्वीकृति होती है और इस अभेद स्वीकृति को ही 'ध्रुव का अहं' कहते हैं।
'अहंमय ध्रुव' श्रद्धा का श्रद्धेय नहीं होता। श्रद्धा का श्रद्धेय इतना पूर्ण एवं सर्वोपरि होता है कि वह उसमें अपने को मिलाने