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________________ सम्यग्दर्शन का विषय (द्वितीय) 39 निषेध रूप भी कोई वृत्ति प्रवर्तित नहीं होती वरन् निरन्तर निज शुद्ध चैतन्य सत्ता में अहं का प्रवर्तन ही पर्याय का निषेध अथवा हेयत्व कहा जाता है। फिर भी यदि हमारा पूर्वाग्रह विकारी एवं अनित्य वृत्ति-समुदाय को परम निर्विकार नित्य द्रव्य के साथ मिलाकर अपने श्रद्धेय की रचना करेगा तो उस श्रद्धेय का क्या स्वरूप होगा, इसकी कल्पना भी सम्भव नहीं है । सम्भवतः इस मिथ्या एवं विफल प्रयास में श्रद्धा एवं श्रद्धेय का सम्पूर्ण सौन्दर्य ही नष्ट हो जावेगा। इसी प्रकार भावी निर्विकारी पर्याय- समुदाय को द्रव्य में मिलाकर श्रद्धा करने का आग्रह भी समान कोटि का मिथ्यादर्शन ही है, अत: उस अविद्यमान सत् को विद्यमान द्रव्य में मिलाने की विधि क्या होगी ? दूसरी वजनी बात यह है कि कोई भी पर्याय नित्य विद्यमान निर्विकारी निज चैतन्य सत्ता के अवलम्बन पर शुद्ध होती है, न कि शुद्ध पर्याय का अवलम्बन होता है । इस संदर्भ में एक अत्यंत सुन्दर मनौवैज्ञानिक तर्क भी हमें समाधान देगा कि जब इस विश्व की अनंत सत्ताओं की तरह निज चैतन्य सत्ता भी संपूर्ण एवं सुन्दर है और विश्व की प्रत्येक सत्ता के पास जितना वैभव है उतना ही हमारे पास भी है, तथा अन्य सत्ताओं के स्वामी अन्य द्रव्य ही हैं और अन्य द्रव्य ही होने चाहिए एवं उनके स्वामित्व का हमें कोई अधिकार नहीं हो सकता और होना भी नहीं चाहिए; तो फिर संपूर्ण एवं सुन्दर स्व-सदन (स्व-सत्ता) का अवलंबन छोड़कर पर-सदन (पर- सत्ता ) में प्रवेश का यत्न क्या वैध एवं विधेय होगा? और क्या इस बलात्कार में शान्ति एवं आनन्द की उपलब्धि हो सकेगी? निश्चित ही नहीं होगी वरन् यह यत्न विश्व का महान् अपराध घोषित किया जाएगा।
SR No.007142
Book TitleChaitanya Ki Chahal Pahal
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYugal Jain, Nilima Jain
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year2012
Total Pages66
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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