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________________ चैतन्य की चहल-पहल में आत्म-पदार्थ के दो अंश द्रव्य एवं पर्याय की स्वरूप-सीमा भी स्थिर हो जाती है और आत्म-पदार्थ दो अंशों में खण्डित न होकर द्रव्य-पर्यायस्वरूप पूरा बना रहता है। गुण-पर्याय का अहम् भी मिथ्यादर्शन आत्मा द्रव्य-पर्यायस्वरूप होने पर भी द्रव्य और पर्याय का स्वरूप परस्पर विरुद्ध होने के कारण श्रद्धा का अहं एक ही साथ दोनों में नहीं हो सकता। जैसे एक स्त्री का अहं एक ही साथ स्व एवं पर दो पुरुषों में नहीं हो सकता। नित्य द्रव्य के अहं में 'मैं अक्षय हूँ! ऐसी अनुभूति होती है और अनित्य पर्याय के अहं में मैं क्षणिक हूँ. ऐसा संवेदन होता है। पर्याय का स्वरूप भी विविध-रूपा है। वह क्षणिक है, आलम्बनवती है, वर्तमान में विकारी है, भूत एवं भविष्य का वृत्ति-समुदाय वर्तमान में विद्यमान ही नहीं है एवं समग्र ही वृत्तिसमुदाय गमनशील है, उसमें विश्राम नहीं है। पथिक को गमन में नहीं, गन्तव्य में विश्राम मिलता है; क्योंकि गन्तव्य ध्रुव एवं विश्रामस्वरूप होता है। इसी प्रकार आत्मवृत्ति को वृत्ति में नहीं ध्रुव में ही विश्राम मिलता है। वृत्तियाँ तो स्वयं ही विश्राम के लिए किसी सत्ता को तपासती हैं। इस प्रकार समग्र ही वृत्ति-समुदाय दृष्टि (श्रद्धा) के विषय-क्षेत्र से बाहर रह जाता है। इसी अर्थ में आचार्यदेव श्री अमृतचन्द ने कहा है कि “बद्धस्पृष्टादि भाव आत्मा के ऊपर ही ऊपर तैरते हैं, उनका आत्मा में प्रवेश नहीं होता।" ___ इस सम्बन्ध में कुछ और भी तथ्य विचारणीय हैं। आत्मा एक अनादि अनन्त ध्रुव एवं अक्षय सत्ता है। गुण एवं पर्याय तो उसके लघु अंश हैं और वह एक ही सदा इनको पीकर बैठा है। अत: गुण
SR No.007142
Book TitleChaitanya Ki Chahal Pahal
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYugal Jain, Nilima Jain
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year2012
Total Pages66
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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