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________________ 32 चैतन्य की चहल-पहल करता हुआ अपने अविराम चिन्तन द्वारा जब महामहिम, आनन्द निकेतन निज चैतन्यसत्ता में ही अलख जगाता है तो सदा से पुण्य-पाप जैसी पर-सत्ताओं में पड़ा श्रद्धा का अहं कंपित एवं विडोलित होकर स्खलन को प्राप्त होता है और लौटकर अपनी ध्रुव अक्षय सत्ता में ही अहंशील होता है। स्वरूप के अहं में धारावाहिक सक्रिय इस गौरवमय वृत्ति को ही सम्यग्दर्शन कहते हैं। श्रद्धा का स्व-सत्ता में अहं परिणत होने के ही क्षण में श्रुतज्ञान की अविराम चिंतनधारा मन का अवलम्बन तोड़ती हुई विराम को प्राप्त होकर उसी शुद्ध चैतन्यसत्ता में एकत्व करती हुई अतीन्द्रिय आनन्द की अनुभूति करती है। उपयोग की यह परिणति ही सम्यग्ज्ञान है जो अनुभूति का विलय हो जाने के उपरान्त भी भेद-विज्ञान की प्रचंड क्षमता को लेकर सम्यग्दर्शन के साथ निरन्तर बना रहता है और उसी समय किंचित् रागांशों के अभाव से उत्पन्न अल्प स्वरूप-स्थिरता ही स्वरूपाचरण चारित्र है। इस प्रकार परम आनन्दस्वरूप यह अनुभूति श्रद्धा, ज्ञान, चारित्र की त्रिवेणी है और साक्षात् मोक्षमार्ग है। __ जैनदर्शन का यह चिंतन सचमुच कितना वैज्ञानिक है कि जहाँ वह यह प्रतिपादन करता है कि जीवन-कला का आरम्भ ही जीवनतत्त्व (निज अक्षय सत्ता) के स्वीकार से होता है; इसीलिए साधना के प्रथम चरण में उसने सम्यग्दर्शन को स्थापित किया और कहा कि इसके बिना सर्वबोध एवं जीवन की सर्व आचार-संहिता मिथ्या ही होती है।
SR No.007142
Book TitleChaitanya Ki Chahal Pahal
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYugal Jain, Nilima Jain
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year2012
Total Pages66
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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