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चैतन्य की चहल-पहल जैसे - एक लौकिक प्रश्न है कि महान् बलशाली, पराक्रमी एवं अतुल वैभव-सम्पन्न एक सम्राट की महारानी दरिद्री महावत पर मुग्ध क्यों हो गई ? उसका कारण यदि हम महावत को मानें तो सम्राट तो उससे कहीं बहुत अधिक है फिर महावत का मोह कैसा? अत: पूर्ण अनुसंधान के बाद हमारा अन्तिम समाधान यही होगा कि यह तो महारानी की अपनी स्वाधीन परिणति ही है। उसके मनोविकार का कारण भी अत्यन्त पर-निरपेक्ष ही है। कथन में कर्मोदय आदि की सापेक्षता आ जाती है, किन्तु भाव तो निरपेक्ष ही रहता है; क्योंकि यदि कोई दूसरा आत्मा को अज्ञानी बनावे तो कोई ज्ञानी भी बना सकेगा और पुन: कोई अज्ञानी बना देगा। इस प्रकार आत्मा किसी के हाथ की कठपुतली मात्र रह जायेगा और उसके बन्ध-मोक्ष के सभी अधिकार छिन जावेंगे और यह तो एक मखौल ही होगा।
फिर एक प्रश्न है कि इतने लंबे एवं जटिल अज्ञान का अन्त कैसे हो ? तो यह प्रश्न स्वयं ही अपना उत्तर है। 'अज्ञान का अन्त कैसे हो' ज्ञान में इस सबल विचार का उत्पाद ही अज्ञान का प्राणान्तक है, क्योंकि प्रबल अज्ञान में ऐसा समर्थ विचार होता ही नहीं।
अनादि अज्ञान के प्रवाह में शुद्धात्मानुभूति-सम्पन्न किन्हीं ज्ञानी सत्पुरुष का सुयोग मिलने पर जो महान् उद्यमशील आत्मा उनकी कल्याणी वाणी को हृदयंगम करता है, उसका अनादि का अज्ञान शिथिल होकर इस समर्थ विचार में प्रवृत्त होता है। ज्ञानी गुरु के सुयोग एवं उनकी वाणी मात्र से यह नहीं होता वरन् गुरु की वाणी
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