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चैतन्य की चहल-पहल चक्रीयता में इस तरह मुग्ध थे कि न तो उसमें से निकलने का उनका मन था और न सामने कोई रास्ता। सौराष्ट्र के इस संत ने जंगलों के निर्जनों में समयसार एवं मोक्षमार्गप्रकाशक जैसे परमागमों का गम्भीर
अवगाहन कर इस आध्यात्मिक समस्या का सरलतम समाधान प्रस्तुत किया।
वस्तु तत्त्व दर्शन उन्होंने कहा- "विश्व के सभी जड़-चेतन पदार्थ स्वयंसिद्ध अनंत शक्तिमय एवं पूर्ण हैं। वे एक-दूसरे से अत्यन्त भिन्न अपनी स्वरूप-सीमा में ही रहते हैं और एक-दूसरे का स्पर्श तक नहीं करते। अत: सभी जड़-चेतन सत्तायें नितान्त शुद्ध हैं। आत्मा भी एक ऐसी ही स्वयंसिद्ध, निरपेक्ष, शुद्ध चैतन्य सत्ता है। श्रद्धा, ज्ञान, चारित्र, आनन्द आदि उसकी असाधारण शक्तियाँ अथवा स्वभाव हैं, जो शाश्वत उसी में रहते हैं। वह अपने में परिपूर्ण एवं अन्य से अत्यन्त भिन्न है। अत: वह एक शुद्ध एवं स्वतन्त्र सत् है, क्योंकि जो सत् अथवा सत्ता है वह स्वतन्त्र, पूर्ण एवं पवित्र होना ही चाहिए अन्यथा वह सत् कैसा ? जो जड़ है वह पूरा जड़ हो एवं चेतन पूरा चेतन। अपूर्ण जड़ अथवा अपूर्ण चेतन का स्वरूप भी क्या हो ? अतः भिन्नत्व, पूर्णत्व एवं एकत्व सत् का स्वरूप ही है।
विश्व के दर्शनों में जैनदर्शन का यह एक मौलिक अनुसंधान है। अपने अनुसंधान में उसने कहा - वस्तु का एकत्व ही उसका परम सौन्दर्य है। सम्बन्ध की वार्ता विसंवाद है।"
विश्व के प्रत्येक पदार्थ के दो अवयव हैं - एक उसकी अनन्त शक्तिमय ध्रुव सत्ता, जिसे द्रव्य कहते हैं और दूसरी उसकी प्रति समय