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________________ 19 सम्यग्दर्शन और उसका विषय (प्रथम) है और उसी में संपूर्णता से 'आपा' ('मैंपना') की स्थापना करता है। आत्मा वास्तव में कैसा है इसकी प्रतीति श्रद्धा का ही कार्य है। यह निर्णय यदि भ्रान्तिवश गलत हो तो श्रद्धा की उस पर्याय को मिथ्यादर्शन कहते हैं और सही हो तो श्रद्धा की उस पर्याय को सम्यग्दर्शन कहते हैं। "मैं वर्तमान में कैसा हूँ इससे सम्यग्दर्शन को कोई प्रयोजन नहीं है, किन्तु वास्तव में कैसा हूँ - यह उसका विषय है।" फलस्वरूप जीवत्व से अतिरिक्त अजीवादि तत्त्व तथा आस्रव, संवर, निर्जरा, मोक्ष आदि सभी विकारी और निर्विकारी पर्यायों को सम्यग्दर्शन विषय नहीं करता। सम्यग्दर्शन जिसको विषय करता है उसे ही उपादेय मानता है और उसी का आश्रय करता है। अत: अजीवादि परतत्त्व तथा रागादि विकारों में तो सम्यग्दर्शन की उपादेयता होती ही नहीं, वरन् निर्विकारी पर्याय में भी उसकी उपादेयता नहीं है; क्योंकि निर्विकारी पर्याय भी क्षणिक होने के कारण दृष्टि को वहाँ विराम नहीं मिलता। लोक में भी हम देखते हैं कि एक ८० वर्ष की वृद्धा सूत कातती है, तो दृष्टि पोनी पर रहती है तो सूत बिना किसी रुकावट के निकलता रहता है, और सूत की ओर दृष्टि जाते ही धागा टूट जाता है - यही प्रक्रिया यहाँ मोक्षमार्ग में है। पर्याय को आश्रय देकर उसकी ओर दृष्टि करते ही एक क्षण में पर्याय खिसक जाती है। फलस्वरूप क्लेश की उत्पत्ति होगी। इसके विपरीत सम्यग्दर्शन पर्याय निरपेक्ष, शुद्ध, अनन्त शक्तियों के पिंड ध्रुव जीवत्व को विषय करती है। अतः आश्रय एकरूप ध्रुव होने के कारण पर्याय का आविर्भाव एवं तिरोभाव उसे क्लेश उत्पन्न नहीं करता। पर्याय की .
SR No.007142
Book TitleChaitanya Ki Chahal Pahal
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYugal Jain, Nilima Jain
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year2012
Total Pages66
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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