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चैतन्य की चहल-पहल
विकल्प को सम्यग्दर्शन मान लिया जाय तो ज्ञान सदा इस विकल्प में तो रहता नहीं है, और तब तो जिस समय ज्ञान आत्मातिरिक्त अन्य पदार्थों को विषय करेगा, उस समय सम्यग्दर्शन का अभाव स्वीकार करना पड़ेगा; किन्तु ऐसा नहीं है। ज्ञान जिस समय पर - तत्त्व को विषय कर रहा हो, उस समय भी श्रद्धा का सद्भाव रहता है। जैसे किसी व्यक्ति को निद्रा में अपने नाम तथा जाति ज्ञान के विषय न रहने पर भी उनकी अखंड प्रतीति बनी ही रहती है । यह प्रतीति जागृत दशा में भी अक्षुण्ण रहती है, जागृत दशा में विभिन्न व्यापार करते हुए भी उस व्यक्ति को नाम तथा जाति विषयक प्रतीति की अखंड धारा साथ ही प्रवाहित होती रहती है। यह अखंड प्रतीति ज्ञान की पर्याय तो नहीं है, अतः यह ज्ञानातिरिक्त किसी अन्य शक्ति की ही पर्याय है और उसे ही श्रद्धा कहते हैं ।
व्यवहार श्रद्धा अथवा व्यवहार सम्यग्दर्शन
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ज्ञान की भाँति सच्चे देव - शास्त्र - गुरु की श्रद्धारूप विकल्प भी सम्यग्दर्शन नहीं है, किन्तु वह चारित्र की शुभरागरूप पर्याय है । देवशास्त्र - गुरु को विषय करने वाला चारित्र विकारी होता है। सच्चे देवशास्त्र-गुरु को विषय करने का अर्थ ही कारण -कार्यभावपूर्वक उनकी उपादेयता को स्वीकार करना है। सच्ची श्रद्धा या सम्यग्दर्शन शुद्ध त्रैकालिक पदार्थ अर्थात् पर- निरपेक्ष स्व - जीवतत्त्व को ही विषय करती है अन्यथा यह मिथ्या होती है।
शास्त्रों में जो सच्चे देव-शास्त्र-गुरु की श्रद्धा को सम्यग्दर्शन कहा है, वह निमित्त की अपेक्षा से है । सम्यग्दर्शन सात तत्त्व की समझ पूर्वक ही होता है और तत्त्व की समझ में सच्चे देव -शास्त्र