________________
तत्त्वज्ञान : एक अनूठी जीवन कला गहरी उतरती है और उसे चैतन्य जगत में ही क्षणिकाओं का एक अत्यन्त सुन्दर कक्ष दिखाई देता है जो अत्यन्त सुन्दर होने पर भी उसे इसलिए रमणीय नहीं लगता कि सागर की तरंग के सदृश वह सदा उपलब्ध रह सकने योग्य नहीं है, और सागर तो सदा उपलब्ध है। अत: क्षणिका का ममत्व भी एक मधुर उन्माद है, जिसमें से निरंतर विकलता का ही स्राव होता है।
इसके अनन्तर चैतन्य का कपाट खुलता है और तत्त्वज्ञान को उसके असंख्य प्रदेशी सन्निवेश में अनन्त शक्तियों का मंगल-लोक दिखाई देता है जैसे चित्र-विचित्र पुष्पों की वाटिका खिली हो। किन्तु तत्त्वज्ञान यहाँ काफी सूक्ष्म एवं गंभीर हो जाता है, क्योंकि चैतन्य की अनुभूति का यह अंतिम व्यवधान है। वह देखता है कि अनन्त के दर्शन में भी अनुभूति की तरलता समाप्त नहीं होती वरन् अनन्त शक्ति की इस चक्रीयता में भी सुहाती-सुहाती सी मंद-मंद विकलता ही निष्पन्न होती है जिसका भेद सजग प्रज्ञ को ही प्रतिभासित होता है। अत: इस शक्ति सम्मोहन से भी अपराजित एवं अतृप्त तत्त्वज्ञान अपने पुरुषार्थ के अंतिम चरण में तूफानी त्वरा से परिणमित होता है और उसे अत्यन्त निस्तरंग अतल-चैतन्य का वह दिव्य-लोक दिखाई देता है, जहाँ अनन्त ही शक्तियां एकत्व में एकीभूत हैं। यहाँ सर्व तरलताओं को विसर्जित करके अनुभूति ऐसी समाहित हो जाती है कि द्वैत ही दिखाई नहीं देता। शुद्ध चैतन्य की यह आनन्द-वेदना ही आर्हत्-दर्शन का प्रसिद्ध ब्रह्मानन्द है।
तत्त्वज्ञान जीवन एवं जगत की एक सर्वांग मीमांसा । जीवन की एक भी समस्या ऐसी नहीं जिसका समाधान उसके पास न हो।