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ज्ञानचक्षु : भगवान आत्मा
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किसी को यह बात कठिन लगे, परन्तु सन्त कहते हैं कि भाई! तेरे स्वरूप में जितना है, उतना ही हम कहते हैं; कहीं बढ़ाकर नहीं कहते।
आत्मा, ज्ञानमूर्ति है। उसके सन्मुख परिणमन होने पर अवस्था में भी शुभाशुभकर्मों का कर्ता-भोक्तापना नहीं रहता। जगत में पुण्य है, उसका फल है परन्तु ज्ञानी के ज्ञानभाव में वह नहीं है; ज्ञानी उसे चैतन्य से भिन्नरूप देखते हैं, इसलिए वे उसके कर्ता -भोक्ता नहीं हैं।
सातवें नरक में भी असंख्यात धर्मी जीव, अपने ऐसे आत्मा को जानते हैं। अशुभ के उदय से शरीर में रागादि हुए या शुभ के उदय से अनुकूलताएँ प्राप्त हुई, वहाँ वह मुझे हुआ - ऐसा नहीं है और उसका मैं भोक्ता नहीं हूँ; मैं तो दोनों से पार, ज्ञान हूँ। आत्मा से बाहर दूसरी वस्तुएँ सत् है अवश्य, परभाव भी है परन्तु धर्मी उन किसी को आत्मारूप नहीं मानता; अनात्मारूप समझता है। ___ शुभ का उदय, वह सुख और अशुभ का उदय, वह दुःख -- ऐसा धर्मी नहीं मानता और वह उसे नहीं भोगता। अन्दर आत्मा में अतीन्द्रिय आनन्द है; उसमें उपयोग जोड़कर, उसका वेदन करता है। इसके अतिरिक्त अन्यत्र कहीं आनन्द नहीं है। आह....! धर्मी की दशा ही कोई निराली है। उसके ज्ञानचक्षु ज्ञानरूप ही रहते हैं; परभाव का कण उसमें प्रविष्ट नहीं हो सकता।
शुद्धज्ञानपरिणत धर्मीजीव, कर्मोदय तथा निर्जरा को भी जानता है; उसका कारक या वेदक नहीं होता - ऐसा कहा है। उसमें कर्म की निर्जरा दो प्रकार की है - सविपाक और अविपाक अथवा अकाम और सकाम।