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ज्ञानचक्षु : भगवान आत्मा
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को आत्मा का मानकर उसका कर्ता-भोक्ता होता है। आचार्यदेव उसे समझाते हैं कि अरे भाई! तू तो ज्ञान है; तू कर्म नहीं है। कर्म का कार्य, कर्म में है; ज्ञान में कर्म का कार्य नहीं है। ज्ञान तो चक्षु की तरह कर्मों से पृथक् ज्ञानरूप ही परिणमित होता है। जैसे, अग्नि को जानने पर आँख क्या अग्निरूप परिणमति है या अग्निरूप हो जाती है? - आँख तो आँखरूप ही रहती है, अग्निरूप नहीं होती; उसी प्रकार रागादि को जानने पर ज्ञानचक्षु तो ज्ञानरूप ही रहता है, रागरूप नहीं होता। इसलिए उसे वह कर्ता या भोक्ता नहीं है।
प्रश्न : भरत चक्रवर्ती तो पुण्यफल को भोगते थे? ... उत्तर : धर्मी को चक्रवर्ती का राज्य इत्यादि पुण्य के संयोग होते हैं तथापि वह जानता है कि मैं तो ज्ञान हूँ; यह पुण्यफल मेरे ज्ञान में नहीं आया है, यह संयोग मेरे ज्ञान का फल नहीं है; इसलिए मेरा ज्ञान इसका कर्ता या भोक्ता नहीं है। पुण्यफल में मैं नहीं हूँ; मैं तो अपने ज्ञान में हूँ, मेरा तो ज्ञान है। पुण्य मैं नहीं, परन्तु पुण्य का जाननेवाला मैं हूँ; ज्ञान-आनन्दरूप जो निर्मल परिणति, उसमें मैं हूँ; पूर्व में राग हुआ और पुण्य बँधा, वह मैं नहीं और उसका फल भी मैं नहीं; वर्तमान शुभराग होता है, उसका भी स्वामीपना नहीं है; इसलिए उसके फल का भी स्वामीपना नहीं है। मैं तो जाननेवाला
ज्ञानस्वभाव में ही हूँ और सदा ही उसरूप ही रहूँगा - ऐसी अनुभवदशा हो, उसे ज्ञानी कहते हैं। उसके बिना अन्य सब तो बाहर की बातें हैं।
- यह तो प्रभु की बात है; किसी पामर / रङ्क की यह बात नहीं है। चैतन्यप्रभु स्वयं अनन्त गुण का स्वामी है, यह उसकी बात है।