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ज्ञानचक्षु : भगवान आत्मा
नहीं है। वह यहाँ बतलाया है। साधकदशा में कम ज्ञान था और क्षायिकज्ञान होने पर ज्ञान अनन्त गुणा बढ़ गया, परन्तु ज्ञान बढ़ा, इससे वह पर का कर्ता हो जाए, ऐसा नहीं है।
उत्कृष्ट ज्ञान और उत्कृष्ट वीर्य भी पर को कर या भोग नहीं सकता। तीर्थङ्करों का केवलज्ञान, दिव्यध्वनि को कर्ता है -- ऐसा वास्तव में नहीं है। ज्ञान में जड़ का कर्तृत्व कैसे हो सकता है? आत्मस्वरूप को दिखलाने में निमित्तरूप होने से भगवान की वाणी पूज्य है परन्तु इससे कहीं भगवान का ज्ञान, उस वाणी का कर्ता नहीं हो जाता। यदि ज्ञान में वाणी का कर्तृत्व मानें तो उसने भगवान की वाणी में कथित जीव-अजीव की भिन्नता को नहीं जाना है; भगवान के ज्ञान को नहीं पहचाना है और वाणी को भी सच्चे स्वरूप से नहीं पहचाना है। भगवान, दिव्यध्वनि के ज्ञाता हैं; कर्ता नहीं। अपने में अभी पर की कर्तृत्वबुद्धि पड़ी है; इसलिए दूसरे में भी वह जीव, कर्तृत्वरहित ज्ञान को नहीं पहचान सकता। पहचाने तो उसे भेदज्ञान हुए बिना नहीं रहेगा, यह बात मोक्षमार्गप्रकाशक में पण्डित टोडरमलजी ने भी समझायी है। ____ अरे! ऐसे ज्ञानस्वभाव की पहचान बिना, संसार में परिभ्रमण करता हुआ जीव, अनन्त बार स्वर्ग में भी गया है परन्तु अन्दर की मिथ्यात्व शल्य मिटे बिना, मोक्षमार्ग इसके हाथ नहीं आयेगा। जैसे, ऊपर से रूझायले फुसी के अन्दर यदि लोहे की कणी रह गयी हो तो वह फुसी पककर मवाद होती है और असह्य पीड़ा करती है; उसी प्रकार बाहर कषायें मन्द पड़ गयी दिखती हों ... व्रत, तप, त्याग, शास्त्र पठन करता हो, परन्तु यदि अन्तर में स्व पर की एकत्वबुद्धिरूप लोहे की कणी पड़ गयी हो तो वह भयङ्कर