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ज्ञानचक्षु : भगवान आत्मा
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बन्ध-मोक्ष को; मात्र बन्ध-मोक्ष को नहीं, शुभ-अशुभ कर्मोदय को तथा सविपाक-अविपाकरूप तथा सकाम -अकाम दो प्रकार की निर्जरा को भी जानता है।' ___जिस प्रकार शुद्धदृष्टि अकर्ता-अभोक्ता है; उसी प्रकार क्षायिकज्ञान भी कर्म के बन्ध-मोक्ष इत्यादि का अकर्ता और अभोक्ता है। पहले अर्थ में दृष्टि का अर्थ, नेत्र-चक्षु किया था; और इस दूसरे अर्थ में दृष्टि, अर्थात् शुद्ध दृष्टि (सम्यक् दृष्टि), ऐसा अर्थ है। चौथे गुणस्थान की दृष्टि से लेकर, ठेठ क्षायिकज्ञान तक कर्मों का और रागादिभावों का अकर्ता-अभोक्तापना है। जैसे, धर्मी को दृष्टि में अकर्तापना है; उसी प्रकार ज्ञान में भी चौथे गुणस्थान से शुरु करके ठेठ केवलज्ञान तक, रागादि का अकर्तापना परिणमित हो रहा है। साधकदशा की शुरुआत से लेकर सिद्धर्दशा तक ज्ञान में कहीं भी राग के साथ तन्मयपना नहीं है; इसलिए उसका कर्तृत्व नहीं है। (इसी प्रकार भोक्तृत्व का भी समझ लेना चाहिए।) __ केवलज्ञान होने पर पुण्य का अथवा वाणी इत्यादि का कता भोक्तापना हो जाए -- ऐसा नहीं है। यह समवसरणादि पुण्य फत और यह दिव्यवाणी इत्यादि सब ज्ञान से भिन्न हैं। ज्ञान, उन किन्हों का कर्ता भी नहीं और भोक्ता भी नहीं; मात्र ज्ञाता है।
भगवान के क्षायिकज्ञान की तरह साधक का ज्ञान भी मात्र जाननेवाला है। उस काल में वर्तते रागादि को अथवा कर्म की अवस्था को, वह ज्ञान कर्ता या भोक्ता नहीं है; ज्ञान तो ज्ञानरूप ही परिणमित होता है, अर्थात् जानता ही है। ___ अहो! ज्ञानस्वभाव आत्मा, वह सर्वज्ञ भगवान ने और सन्तों ने सिद्ध किया है। ज्ञान का कार्य क्या? – इसका भी जगत् को पता