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ज्ञानचक्षु : भगवान आत्मा
राग का निमित्त हूँ' - जहाँ तक ऐसी अशुद्धदृष्टि रहती है, वहाँ तक सम्यग्दर्शन नहीं होता। शुद्ध उपादानस्वभाव की दृष्टि के बिना, धर्म नहीं होता है। यहाँ तो आत्मा, राग को जाननेवाला है, अर्थात् राग, वह ज्ञेयरूप से ज्ञान का निमित्त है - ऐसी बात है परन्तु आत्मा, कर्ता होकर राग को अथवा कर्म को निमित्त होता है, यह बात यहाँ नहीं है। ज्ञान और रागादि भावों का एकदम पृथक्करण करने की यह बात है। सत्स्वरूप आत्मा, अर्थात् सच्चा आत्मा तो ज्ञानस्वरूप है; वह रागस्वरूप नहीं है, रागादि तो सत् स्वभाव में अविद्यमान है।
समयसार की सातवीं गाथा में आचार्यदेव ने यह समझाया है कि ज्ञानी को शुद्धदृष्टि में एक ज्ञायकभाव ही प्रकाशमान है। शुद्धदृष्टि में दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप पर्याय के भेद नहीं हैं; अभेद में पर्याय एकाग्र हुई, वहाँ भेद दिखाई नहीं देते। ज्ञानी को निर्मल पर्यायें तो हैं परन्तु उनके भेद के विकल्प में ज्ञानी रुकता नहीं है। - शुद्ध उपादान में उदयभाव नहीं है - चार गति, चार कषाय, छह लेश्या, तीन वेद, एक मिथ्यादर्शन, एक अज्ञान, एक असंयम, एक सिद्धत्व - इस प्रकार सामान्यरूप से इक्कीस उदयभाव हैं। (जिन्हें तत्त्वार्थसूत्र में जीव के भावरूप से वर्णन किया गया है।) वे भाव, आत्मा के परमशुद्धस्वभाव में नहीं हैं और उस स्वभाव का अनुभव करनेवाली निर्मल पर्याय में भी वे भाव नहीं हैं । ज्ञान -दर्शन-चारित्र के भेद का सूक्ष्म विकल्प भी उदयभाव है। अभेद आत्मा में वह विद्यमान नहीं है। गुण तो सब विद्यमान हैं परन्तु एक शुद्धवस्तु का अभेदरूप से अनुभव करने पर, वे गुणभेद दिखाई नहीं देते; एक शुद्ध द्रव्य अनन्त गुण-पर्यायों को अभेदरूप से पी