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________________ ज्ञानचक्षु : भगवान आत्मा 29 - कदाचित् जगत् के अज्ञानी ठगाये जायेंगे और वे तुझे मान देंगे, परन्तु भगवान के मार्ग में यह बात नहीं चलती। तेरा आत्मा, तुझे जवाब नहीं देगा। राग से धर्म मानने पर तेरा आत्मा ठगा जाएगा; सत् नहीं ठगा जाएगा; सत् तो जैसा है, वैसा ही रहेगा। तू अन्यथा माने, इससे कहीं सत् बदल नहीं जाएगा। तू राग को धर्म मानता है, इससे कहीं राग तुझे शरण नहीं देगा। भाई! तुझे शरणरूप और सुखरूप तो तेरा वीतरागस्वभाव है; दूसरा कोई नहीं। भगवान ! तेरे अन्तर में विराजमान ऐसे आत्मा को एक बार देख तो सही! ज्ञान को आत्मा के साथ अभेदता है और राग के साथ भेद है; राग से धर्म होना मानना तो शत्रु से सहारा मिलेगा - ऐसा मानने जैसा है। अहा, यह प्रभु का मार्ग.... अर्थात्, आत्मा के स्वभाव का मार्ग अलौकिक है। आत्मा स्वयं शुद्धउपादान होकर, कर्मों को अथवा राग को करता नहीं है; मात्र जानता है। देखो, इसमें तीन बोल आये - - स्वभावसन्मुख हुई शुद्धज्ञानपर्याय, रागादि को नहीं करती; - ज्ञानपरिणत आत्मा, रागादि को नहीं करता; - आत्मा, शुद्ध उपादानरूप से रागादि को नहीं करता। शुद्धज्ञानपर्याय कहो, ज्ञानपरिणत आत्मा कहो अथवा शुद्ध उपादान कहो, उसमें कहीं रागादि का कर्तृत्व नहीं है। प्रश्न - शुद्धज्ञानपर्यायरूप से परिणत आत्मा, रागादि को शुद्ध उपादानरूप से भले ही न करे, परन्तु निमित्तरूप से तो करता है न? उत्तर - भाई ! यहाँ यह बात नहीं है; यहाँ तो शुद्ध आत्मा की दृष्टि की बात है। उसमें तो राग का निमित्तकर्तापना भी नहीं है। मैं
SR No.007139
Book TitleGyanchakshu Bhagwan Atma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarilal Jain, Devendrakumar Jain
PublisherTirthdham Mangalayatan
Publication Year
Total Pages262
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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