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ज्ञानचक्षु : भगवान आत्मा
है, यह निश्चयनय का विषय है। वस्तु में नित्यता और अनित्यता दोनों हैं, स्याद्वाद का यह महासिद्धान्त है, इससे विरुद्ध अन्य प्रकार से मानें तो कुछ सिद्ध ही नहीं हो सकता है।
देखो! कोई भी जीव, जब ऐसा विचार करता है कि मुझे दुःख मिटाकर सुखी होना है, तब उसमें दोनों बातें सिद्ध हो जाती हैं -
१. दुःखदशा मिटाकर सुखदशा हो सकती है - उत्पाद -व्यय। . २. दुःख मिटकर मुक्तदशा होने पर स्वयं कायम टिक रहा है - ध्रुवता।
इस प्रकार उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तं सत् – ऐसा वस्तुस्वरूप है। उसे पहचानने पर ध्रुवस्वभाव के आश्रय से सुख की पर्याय उत्पन्न होती है और दुःखपर्याय नष्ट होती है। इस प्रकार दुःख मिटा और सुख हुआ; अधर्म मिटा और धर्म हुआ, यह क्रिया पर्याय में हुई है; ध्रुव तो ध्रुव है।
परमार्थ से जीव उत्पन्न नहीं होता, अर्थात् द्रव्य-अपेक्षा से उत्पाद-व्यय नहीं है।
व्यवहार से जीव उत्पन्न होता, अर्थात् पर्याय-अपेक्षा से उत्पाद
-व्यय है।
___ एक गति में से दूसरी गति में जाने पर भी, द्रव्यस्वभाव की अपेक्षा से जीव ऐसा का ऐसा रहता है। ऐसे स्वभाव को भूलकर अज्ञानरूप से वह संसार में भटकता है। स्वभाव को समझकर एक बार मोक्षदशा प्रगट करे तो फिर से चार गति में अवतार नहीं रहेगा। इसमें उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य सब आ जाता है। असमझ है, उसे