________________
233
ज्ञानचक्षु : भगवान आत्मा
का ध्येय नहीं है। अवस्था को पृथक् लक्ष्य में लेने जाए तो विकल्प उठते हैं और ध्यानदशा नहीं रहती है । ज्ञानी के ध्यान में ध्रुव ध्येय है, त्रिकाल चिदानन्दस्वरूप को वह ध्यान में ध्याता है । उस काल में तन्मय होने पर भी, और रागरहित होने पर भी वह ध्यानपर्याय विनश्वर है और ध्येयरूप पारिणामिकभाव अविनश्वर है। ध्यानपर्याय, औपशमिक आदि तीन भावरूप है और ध्येय द्रव्य, पारिणामिकभावरूप है। ध्यान, वह क्रिया है और ध्येयरूप द्रव्य, अक्रिय है । इस प्रकार कथंचित् भिन्नता है परन्तु ध्यान के काल में 'यह द्रव्य और यह पर्याय' ऐसे विकल्प नहीं रहते हैं; उसमें तो अभेद अनुभव का निर्विकल्प आनन्द ही है।
भगवान आत्मा आनन्द से भरपूर ध्रुव पिण्ड में एकाग्र होकर उसे ध्येय करनेवाली दशा, मोक्षमार्ग है। आत्मा का ध्रुवस्वभाव अनादि - अनन्त आनन्द से भरपूर है, अर्थात् पारिणामिकभाव अनादि-अनन्त है । क्षायिकभाव प्रगट होने के बाद ऐसा का ऐसा सदा काल परिणमित हुआ करता है; इसलिए वह सादि - अनन्त है; शेष तीन भावों को सादि - सान्त कहा है । औदायिक और क्षायोपशमिक ये दोनों भाव, प्रवाहरूप से अनादि के होने पर भी वे ऐसे के ऐसे नहीं रहते, कम ज्यादा हैं; इसलिए उन्हें भी सादिसान्त ही गिना है । औदायिकभाव का एक बार सर्वथा अभाव हुआ, फिर वह कभी उत्पन्न नहीं होता है और क्षायिकभाव एक बार प्रगट होने के बाद कभी जाता नहीं है । यद्यपि उसमें परिणमन है परन्तु सदा काल एक समान पूर्ण शुद्ध रहता है। ध्रुव के अवलम्बन से प्रगट हुआ वह निर्मल आनन्दमय क्षायिकभाव सदाकाल ध्रुव के साथ रहा करता है ।