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ज्ञानचक्षु : भगवान आत्मा
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शुद्धपर्याय – दोनों की बात इसमें आ गयी। शुद्धद्रव्य के सन्मुख जो पर्याय झुकी, वह शुद्ध ही है - ऐसा वस्तु का स्वभाव है। अलौकिक शैली से अन्तर का वस्तुस्वभाव सन्तों ने समझाया है।
वाह रे वाह! वनवासी वीतरागी दिगम्बर सन्तों! आपकी वाणी ने वीतराग मार्ग के रहस्य खोलकर महान उपकार किया है।
मिथ्यात्व से लेकर योग के कम्पन्न तक के सभी भावं औदायिकभावरूप क्रिया है। सम्यक्त्व से लेकर अयोगदशा तक के भाव, क्षायिक आदि भावरूप क्रिया है, वह मोक्ष का कारण है
और सिद्धदशा भी क्रियारूप है। उसमें क्षायिकभावरूप उत्पादव्ययरूप क्रिया है। ऐसी क्रियारूप पर्यायें, पर्यायनय का विषय है। द्रव्य एकरूप निष्क्रिय पारिणामिकभावरूप बन्ध-मोक्षरहित है, वह द्रव्यनय का विषय है। निर्मल चेतना पर्याय, वह आत्मा का सच्चा व्यवहार है, वह सच्ची क्रिया है; वह क्रिया ही मोक्ष की क्रिया है। उस क्रिया में सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र समाहित होते हैं। राग का या जड़ की क्रिया का उसमें अभाव है और शुभक्रियाएँ मोक्ष के कारण में नहीं आती हैं। . देखो, यह तो वीतराग शासन के स्याद्वाद की मीठी लहर है। स्याद्वाद अनुसार होनेवाले भावश्रुतज्ञान में अतीन्द्रिय आनन्द की लहर उठती है। जैसे, समुद्र अपने ही अपने में उछलता है; उसी प्रकार यह अपने ही अपने में - द्रव्य और पर्याय के बीच ही सारी क्रीड़ा है; इससे बाहर की तो बात ही नहीं है। तेरा कार्य-कारणपना तेरी पर्याय में ही समाहित होता है। इसीलिए बाहर देखने की आवश्यकता नहीं है। तेरे अखण्ड आत्मा को ध्येयरूप बना, वही मोक्ष का उपाय है।