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________________ 216 ज्ञानचक्षु : भगवान आत्मा चार भाव कहो, या क्रिया कहो - यह सब एकार्थ है। ऐसे भावोंरूप आत्मवस्तु है। आत्मवस्तु का जो पारिणामिकभाव है, वह औपशमिक आदि क्षणिकभावरूप नहीं, कथञ्चित भिन्न है, यह बात पूर्व में आ गयी है। ऐसे स्वभाव के भान से पर्याय में जो निर्मलभावोंरूप मोक्षमार्ग प्रगट हुआ, उसमें विकाररूप औदयिकभाव नहीं है। जीव के इन पाँचों भावों में कहीं पर की तो बात ही नहीं है, पर का तो उसमें सर्वथा अभाव है-अत्यन्त अभाव है। अपने ही अपने में द्रव्य पर्याय के युगल की बात है। द्रव्य में कौन-सा भाव लागू पड़ता है और पर्याय में कौन-से भाव लागू पड़ते हैं ? मोक्ष का कारण कौन -से भाव हैं ? किन भावों को सक्रिय कहते हैं और किस भाव को निष्क्रिय कहते हैं ? कौन-सा भाव ध्यानरूप है और कौन सा भाव ध्येयरूप है - ऐसे बहुत स्पष्टीकरण करके आत्मा के भाव समझाये हैं। __ जड़ की क्रियाएँ – बोलना, चलना, खाना, लिखना, पकाना, इत्यादि तो आत्मा में है ही नहीं, मिथ्यात्व-रागादिभावरूप विकारक्रिया (भी) अज्ञानी करता है, धर्मी के ज्ञानस्वभाव में वह क्रिया (भी) नहीं है। धर्मी के ज्ञानभावरूप क्रिया, जो कि मोक्ष की साधक है, वह क्रिया पर्याय में है, द्रव्य में वह नहीं है। ज्ञायकभाव एक है, वह प्रमत्त-अप्रमत्तरूप नहीं हुआ है' - ऐसे अक्रिय ज्ञायकस्वभाव को जब स्वानुभूतिरूप क्रिया द्वारा अनुभव में लिया, अर्थात् पर से भिन्नरूप उपासित किया, तब उसे 'शुद्ध आत्मा' कहा। उस शुद्धभावरूप परिणमित हुआ, वह मोक्षमार्ग है। शुद्धद्रव्य और
SR No.007139
Book TitleGyanchakshu Bhagwan Atma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarilal Jain, Devendrakumar Jain
PublisherTirthdham Mangalayatan
Publication Year
Total Pages262
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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