________________
ज्ञानचक्षु : भगवान आत्मा
हैं ? वे तो औदयिकभाव की क्रिया है, बन्ध की क्रिया है - हो । भगवान आत्मा के स्वभाव में उसका कारकपना
भले
शुभ
214
नहीं है ।
यहाँ तो निर्मलपर्यायरूप क्रिया, जो कि मोक्ष का कारण है, वह भी ध्रुव में नहीं है। ध्रुवभाव में पलटनेरूप क्रिया ही नहीं है, इसलिए निर्मलपर्यायरूप क्रिया भी उसमें नहीं है तो फिर रागादि बन्धभावों की क्रिया का कर्तृत्व उसमें कहाँ से होगा ? उसका कर्तृत्व ध्रुव में तो नहीं और ध्रुवस्वभाव के सन्मुख झुकी हुई पर्याय में भी उस राग-क्रिया का कर्तृत्व नहीं है - ऐसी पर्यायरूप परिणमित आत्मा को अकर्ता और अभोक्ता कहा है। विकल्प उत्पन्न हो, उसका कारकपना शुद्धात्मा में नहीं है और वह विकल्प, आत्मा की शुद्धता का कारण नहीं है। इस प्रकार दोनों को भिन्न कर दिया है - ऐसा शुद्ध आत्मा, वह शुद्धनय का विषय है !
प्रमाण अपेक्षा से ऐसा कहा जाता है कि जितने परिणाम हैं - शुद्ध या अशुद्ध.... वे सब उस वस्तु के आश्रय से हैं, दूसरी वस्तु के आश्रय से नहीं; इसलिए रागपरिणाम भी आत्मा के आश्रय से है क्योंकि वह आत्मा का परिणमन है; उसका कर्ता आत्मा है और वह आत्मा का भाव है । पाँचों भाव, जीवतत्त्व के हैं; इस प्रकार परद्रव्यों से आत्मा की भिन्नता समझाते हैं ।
अब, आत्मा में भी शुद्ध - अशुद्धभावों के विभाग की बात चलती है । उसमें परसन्मुखता से हुए जितने विभावभाव हैं, वे सब पराश्रय से हुए कहे जाते हैं; वह शुद्ध आत्मा का तत्त्व नहीं है । : अपने शुद्धस्वभाव की सन्मुखता से हुए भाव, वे आत्मा के आश्रय से हुए कहे जाते हैं और वह आत्मा का तत्त्व है, वह मोक्ष का