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________________ ज्ञानचक्षु : भगवान आत्मा 213 क्रिया होती है, उस व्यवहार को और उस क्रिया को हम धर्म मानते हैं परन्तु यह तेरा माना हुआ व्यवहार नहीं और तेरी मानी हुई क्रिया नहीं। अज्ञानी तो शरीर की क्रिया को क्रिया मानता है और शुभराग को व्यवहार मानता है परन्तु इनमें से एक भी मोक्षमार्ग में नहीं है; एक भी धर्म नहीं है। शरीर की क्रिया तो जड़ है और राग तो विकार है; धर्मी उसे नहीं साधते हैं; उस क्रिया को अथवा उस राग को अपना नहीं मानते हैं। धर्मी तो चिदानन्दस्वभाव के आश्रय से मोक्षमार्ग को साधते हैं। यह मोक्षमार्ग को साधनेरूप क्रिया ही धर्मी की क्रिया है और वही उसका व्यवहार है; त्रिकाल अक्रिय चिदानन्दस्वभावरूप द्रव्य, वह निश्चय है। धर्मी को ऐसे निश्चय -व्यवहार की अलौकिक सन्धि है। ऐसे निश्चय-व्यवहार को सम्यग्दृष्टि ही जानता है। शुद्ध पारिणामिकभावरूप द्रव्य निष्क्रिय है। वह निष्क्रिय क्यों है? क्योंकि वह बन्ध के कारणरूप नहीं है तथा मोक्ष के कारणरूप भी नहीं है। बन्ध-मोक्ष के परिणाम से रहित अपरिणामी है; अपरिणामी होने से निष्क्रिय है। वह सदा ही वीतराग-विज्ञानघन एकरूप है - ऐसे द्रव्यस्वभाव को पहचानने से पर्याय में धर्म क्रिया हो जाती है। पहचानना' - स्वयं ही धर्म क्रिया है। परसन्मुख ऐसी रागादि परिणति, वह बन्ध के कारणरूप क्रिया है और स्वसन्मुख शुद्धभावना परिणति, वह मोक्ष के कारणरूप क्रिया है। जितने अशुभभाव हैं या जितने शुभभाव हैं, वे सभी रांगभाव, बन्धकारणरूप क्रिया में समाहित होते हैं, वे कोई मोक्ष की क्रिया में नहीं आते हैं। परसन्मुख के झुकाववाले भाव, मोक्ष का कारण कैसे हो सकते
SR No.007139
Book TitleGyanchakshu Bhagwan Atma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarilal Jain, Devendrakumar Jain
PublisherTirthdham Mangalayatan
Publication Year
Total Pages262
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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