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ज्ञानचक्षु : भगवान आत्मा .
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अहो! ज्ञाता-दृष्टास्वभावरूपी आँख में राग के कर्तृत्वरूपी अग्नि का कण नहीं समा सकता। क्या आँख में तिनका समायेगा? नहीं समायेगा।शुभ-अशुभराग तो आग के समान है, वह ज्ञानचक्षु में कैसे समायेंगे? ज्ञानचक्षु उन्हें कैसे करेगी और उन्हें कैसे भोगेगी? वह तो उनसे भिन्न रहकर, मात्र उन्हें जानती है।
जैसे, संधूकण से अग्नि जलाने की क्रिया आँख नहीं करती; आँख तो उसे जानती ही है; उसी प्रकार ज्ञेय पदार्थों की क्रिया तो आत्मा नहीं करता है, वह तो उन्हें जानता ही है। पुण्य-पाप भी ज्ञान का ज्ञेय है, ज्ञान उन्हें जानता ही है परन्तु उन्हें कर्ता नहीं है। यदि ज्ञान, स्वयं पुण्य-पाप को करे तो ज्ञान स्वयं पुण्य-पाप हो जाएगा; पृथक् नहीं रहेगा। जैसे, अग्नि को आँख स्वयं सुलगाये तो आँख भी सुलग जाएगी। जैसे, ज्ञानस्वभावी.आत्मा पर का और रागादि का कर्ता नहीं है; उसी प्रकार वह उनका भोक्ता भी नहीं है -- ऐसा उसका स्वभाव है। ऐसे आत्मस्वभाव को श्रद्धा-ज्ञानअनुभव में लेना, वह मोक्ष का कारण है। ___ यह बाहर की आँख दिखती है, वह तो पुद्गल की रचना है; आत्मा तो ज्ञाननेत्रवाला है। जैसे, नेत्र अपने से बाह्य वस्तुओं को आगे-पीछे नहीं करता; उसी प्रकार जगत् का दृष्टा आत्मा, दृश्य पदार्थों में किसी को आगे-पीछे नहीं करता; स्वयं अपने में रहकर विश्व को देखता ही है। राग भी ज्ञान से भिन्न वस्तु है, दोनों का स्वरूप पृथक् है। यदि पृथक् न हो तो ज्ञान की तरह राग के बिना भी आत्मा जीवित नहीं रह सकेगा, परन्तु सिद्ध भगवान तो सदा ही राग के बिना ही चैतन्यप्राण से जीवित हैं। इसलिए राग और ज्ञान