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________________ 12 ज्ञानचक्षु : भगवान आत्मा अग्नि की उष्णता का वेदक है; इस प्रकार उन्हें अग्नि का कर्ता ---भोक्तापना है परन्तु उन दोनों को देखनेवाली दृष्टि, अर्थात् आँख तो अग्नि को करती या भोगती नहीं है। यदि आँख, अग्नि को भोगे तो स्वयं जल जाएगी। इसी प्रकार शुद्धज्ञान भी रागादिभावों को अथवा कर्म की बन्ध-मुक्त अवस्था को कर्ता या भोक्ता नहीं है; इसलिए वह अकर्ता और अभोक्ता है। यदि आँख, अग्नि को करे तो वह स्वयं अग्निरूप होकर जल जाएगी। इसी प्रकार यदि ज्ञानचक्षु, रागादि कषायअग्नि को करे तो वह ज्ञान, स्वयं ही राग हो जाएगा, परन्तु शुद्धज्ञान तो ज्ञान ही है; उसमें रागादि का कर्ता-भोक्तापना नहीं है। यहाँ जैसे 'शुद्धज्ञान' को अकर्ता और अभोक्ता कहा है; उसी प्रकार अभेददृष्टि से कहें तो 'शुद्धज्ञानपरिणतिरूप से परिणमित जीव' भी रागादि का अकर्ता और अभोक्ता है; वह स्वयं शुद्ध उपादानरूप से उन्हें कर्ता-भोक्ता नहीं है। शुद्धज्ञानपरिणत धर्मी जीव, कर्म का अथवा विकार का कर्ता नहीं है, भोक्ता नहीं है; उनमें तन्मय होकर उसरूप परिणमित नहीं होता, अपितु दृष्टि की तरह मात्र ज्ञाता ही रहता है। ऐसे ज्ञानभावरूप परिणमन, वह धर्म है। शुद्धजीव, शुद्धउपादानरूप होकर अशुद्ध रागादि व्यवहारभावों को नहीं करता। शुद्धज्ञानरूप परिणमित ज्ञानी जीव, अशुद्धभाव में तन्मय नहीं होता, अर्थात् उन्हें कर्ता या भोक्ता नहीं है। इस प्रकार अकर्ता-अभोक्ता शुद्धस्वरूप समझने पर आत्मा को धर्म होता है। ऐसा स्वरूप समझकर, अपने ज्ञाता-दृष्टास्वभाव के सन्मुख होकर, रागादि के अकर्ता-अभोक्तारूप परिणमित होना, वह वीतरागदेव द्वारा कथित मोक्षमार्ग है।
SR No.007139
Book TitleGyanchakshu Bhagwan Atma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarilal Jain, Devendrakumar Jain
PublisherTirthdham Mangalayatan
Publication Year
Total Pages262
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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