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________________ 204 ज्ञानचक्षु : भगवान आत्मा समस्त रागादिरहित है। ऐसा वीतरागभाव चौथे गुणस्थान से शुरु होता है, और तब वह जीव भगवान के मार्ग में आया कहलाता है। 'ऐसा मार्ग वीतराग का....' वीतराग पन्थ, राग से भिन्न है। चौथे गुणस्थान में शुद्धता का जो छोटे से छोटा अंश है, उसमें भी राग का अभाव ही है। शुद्धता में राग नहीं और राग में शुद्धता नहीं; दोनों की जाति भिन्न है। सम्यग्दृष्टि को द्रव्य में राग नहीं है, गुण में राग नहीं है, और जो निर्मलपर्याय हुई, उसमें भी राग नहीं है; इस प्रकार द्रव्य-गुण-पर्याय तीनों रागरहित शुद्धरूप वर्तते हैं। उसकी दृष्टि में द्रव्य-गुण-पर्याय – ऐसे तीन भेद भी नहीं हैं, वह तो अभेद का अनुभव करता है । भावना में भेद का अवलम्बन नहीं है; अभेद को भाने से शुद्धता का परिणमन हुआ करता है। ऐसी शुद्धता की पूर्णता, वह मोक्ष और आंशिक शुद्धता, वह मोक्षमार्ग है। मोक्ष कहा निज शुद्धता, वह पावे सो पंथ.... । कारण-कार्य एक प्रकार का होता है। शुद्धकारण का अनुसरण करके ही शुद्धकार्य होता है। शुभराग कारण होकर तो अशुद्धतारूप कार्य को करेगा परन्तु वह कहीं शुद्धकार्य को नहीं करेगा। शुद्ध कार्य का कारण तो शुद्ध ही होता है; इसलिए रागरहित होता है। अभी तो शुभराग, मोक्ष का कारण नहीं है, जबकि अज्ञानी, जड़ की क्रियाओं को मोक्ष का कारण मानता है, यह बात तो कहाँ रही? यह तो गयी मिथ्यात्व में! साधक को प्रति समय की पर्याय, स्वाश्रय से जितनी शुद्ध उपादानरूप परिणमित हुई है, उतना मोक्ष का कारण है। शुद्धद्रव्य जो कि ध्रुवभावरूप है, वह मोक्ष का कारण नहीं होता तथा उस शुद्धद्रव्य से विमुख वर्तते भाव भी मोक्ष का कारण नहीं होते; शुद्धद्रव्य के सन्मुख वर्तते निर्मलभाव ही मोक्ष
SR No.007139
Book TitleGyanchakshu Bhagwan Atma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarilal Jain, Devendrakumar Jain
PublisherTirthdham Mangalayatan
Publication Year
Total Pages262
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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