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ज्ञानचक्षुः भगवान आत्मा
नाम हैं। उदयभाव उससे बाहर है। जितना शुद्धपरिणमन हुआ, उसमें तो राग है ही नहीं; उस काल में जो राग होता है, वह भी शुद्धज्ञान से पृथकरूप है, एकरूप नहीं है। चौथे गुणस्थान में भी शुद्धात्मा का अवलम्बन करके सम्यग्दर्शन-सम्यग्ज्ञान-स्वरूपाचरण हुआ है, वह तो रागरहित ही है।
प्रश्न - वहाँ राग है तो सही न?
समाधान - उस काल में राग हो, उससे क्या? पूरी दुनिया है परन्तु ज्ञान उससे पृथक है, ज्ञान उसे नहीं करता; उसी प्रकार राग का भी ज्ञान कर्ता होता नहीं है, जानता ही है; इसलिए सम्यग्दृष्टि के सम्यक्त्वादि जो निर्मलभाव हैं, वे तो राग से मुक्त ही हैं, पृथक् ही हैं। आत्मा, पर से तो पृथक् था ही और स्वसन्मुखपरिणति होने पर वह राग से भी पृथक् हुआ। राग, राग में है परन्तु राग, ज्ञान में नहीं है क्योंकि ज्ञान ने राग को पकड़ा नहीं है; ज्ञान में राग ज्ञात होने पर 'यह राग मैं ऐसा वेदन ज्ञान में नहीं होता परन्तु 'मैं ज्ञान हूँ' - ऐसा ज्ञान तो स्वयं को ज्ञानरूप ही वेदन करता है - ऐसे ज्ञानवेदन के साथ आनन्द है परन्तु राग उसमें नहीं है।
अरे जीव! मोक्ष के कारणरूप तेरी निर्मलपर्याय कैसी होती है? उसे पहचान तो सही! तेरी मोक्ष सम्पत्ति को पहचानेगा तो वैसी दशा प्रगट होगी। मोक्ष के कारणरूप वह पर्याय, परभावों से शून्य और अपने शुद्धस्वभाव का ही अवलम्बन करनेवाली है। अन्तर में झुकी हुई वह पर्याय, जगत् के पदार्थों से पृथक्, देह से पृथक्, वचन से पृथक्, कर्मों से पृथक् और रागादिभावकों से भी पृथक् है परन्तु वह ज्ञान से भरपूर, श्रद्धा से भरपूर – ऐसे अनन्त निजभावों से भरपूर है।