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________________ ज्ञानचक्षु : भगवान आत्मा 177 .. . ." है परन्तु पर्याय जितना ही द्रव्य नहीं है। यदि पर्याय जितना ही द्रव्य होवे तो पर्याय का नाश होने से द्रव्य का भी नाश हो जाएगा। वस्तु, द्रव्य-पर्याय दोनोंरूप है, इसमें ध्रुवद्रव्य, वह द्रव्यार्थिकनय का विषय है, और पर्याय, वह पर्यायार्थिकनय का विषय है। वस्तु, द्रव्य-पर्यायस्वरूप है, उसके स्वीकार बिना सच्चा तत्त्वनिर्णय या सम्यग्दर्शन नहीं होता। ध्रुव के बिना अकेले उत्पाद-व्यय नहीं हो सकते और उत्पाद -व्यय के बिना अकेला ध्रुव, कार्य नहीं कर सकता। यदि अवस्था को न मानो तो अज्ञान मिटाने का, सत्यं समझने का या मोक्ष का साधन करने का नहीं रहता। इसी प्रकार नित्यता न माने तो भी सत्य समझना, अज्ञान मिटाना या मोक्ष का साधन करना नहीं रहता। मोक्ष का साधन करके उसके फल को भोगेगा कौन? साधन करनेवाला जीव स्वयं यदि उसके फल को भोगने को कायम न रहता हो और नष्ट हो जाता हो, तो उसका साधन तो व्यर्थ गया! साधन का फल तो वह भोग नहीं सका! ऐसा वह साधन कौन करेगा? अपना ही अभाव कौन चाहेगा? इसलिए नित्य -अनित्यरूप (द्रव्य-पर्यायरूप) आत्मवस्तु है -- ऐसे आत्मा को पहचाने तो सच्चा निर्णय कहलाता है। उसे मोक्षसाधन और मोक्षफल - यह सब यथार्थ होता है। आत्मा ऐसा सूक्ष्म 'गहरा है कि बाहर की स्थूलता द्वारा वह पकड़ में नहीं आता। ज्ञानी के अन्तर का घर गहरा है, उसमें शुभविकल्प द्वारा प्रवेश नहीं होता। अन्तर्मुख शुद्धोपयोग द्वारा अनुभव में आवे – ऐसा उसका गहरा स्वरूप है। जिसे ध्यान करना है, उसे अपना ऐसा स्वरूप भलीभाँति समझकर उसका ध्यान करना
SR No.007139
Book TitleGyanchakshu Bhagwan Atma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarilal Jain, Devendrakumar Jain
PublisherTirthdham Mangalayatan
Publication Year
Total Pages262
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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