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________________ ज्ञानचक्षु : भगवान आत्मा 163 ही नहीं है, वह स्वयं भावनारूप नहीं है; भावनारूप तो पर्याय है। पर्याय, वह ध्रुव नहीं है; ध्रुव, वह पर्याय नहीं है। (जिसे प्रवचनसार में अतद्भाव कहा गया है।) द्रव्यस्वभावरूप ध्रुवतत्त्व, पररूप तो नहीं, रागरूप तो नहीं और एक पर्याय जितना भी नहीं। यद्यपि पर्याय है वस्तु की अपनी, तथापि ध्रुव की दृष्टि में वह पर्याय नहीं दिखती है। प्रमाणरूप वस्तु को देखने से वह द्रव्य-पर्याय दोनों रूप है – ऐसा वस्तुस्वरूप है। मोक्ष करना है – मोक्ष, अर्थात् क्या? मोक्ष, अर्थात् आत्मा की पूर्ण पवित्रदशा। त्रिकाल द्रव्यस्वभाव तो मुक्तस्वरूप है ही; द्रव्य अपेक्षा से मोक्ष नया नहीं होता, परन्तु द्रव्य का मोक्षस्वरूप -शुद्धस्वरूप समझने से पर्याय में मोक्षदशा नयी प्रगट होती है। वस्तु का त्रिकाली स्वभाव बँधता नहीं, आवृत नहीं होता, अशुद्ध नहीं होता; बन्धन, आवरण, या अशुद्धता तो क्षणिक पर्याय में होते हैं। अज्ञान से अकेली अशुद्धता को ही देखता था और मैं सम्पूर्ण अशुद्ध हो गया - ऐसे स्वभाव को विपरीत मानकर, अपने को अशुद्ध ही अनुभव करता था परन्तु सच्चा उपदेश लक्ष्य में लेने से सम्यक् विचारधारा जागृत हुई, तब ज्ञान द्वारा समझ में आया कि अहो! मेरा सम्पूर्ण स्वभाव तो शुद्ध है; अशुद्धता तो एक अंश में ही थी, वह कहीं मेरा शाश्वत् स्वरूप नहीं था। ऐसा भान करके शुद्धस्वभाव में सन्मुख होकर परिणमित हुआ, वहाँ पर्याय भी उसके जैसी शुद्ध हुई और अशुद्धता मिटी। द्रव्य तो मुक्त था और उसमें एकता द्वारा पर्याय भी मुक्त हुई, वह जीव अब सदा काल मुक्तरूप ही रहेगा, बन्धन में से मुक्ति होगी, परन्तु मुक्ति होने के
SR No.007139
Book TitleGyanchakshu Bhagwan Atma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarilal Jain, Devendrakumar Jain
PublisherTirthdham Mangalayatan
Publication Year
Total Pages262
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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