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________________ ज्ञानचक्षु : भगवान आत्मा च वेदयति। अथवा पाठांतरं [दिट्ठी खयंपि णाणं] तस्य व्याख्यानं - न केवलं दृष्टिः क्षायिक-ज्ञानमपि निश्चयेन कर्मणामकारक तथैवावेदकमपि। तथाभूतः सन् किं करोति ? [जाणदि य बंधमोक्खं] जानाति च।कौ?बंधमोक्षौ। न केवलं बंधमोक्षौ [कम्मुदयं णिजरं चेव] शुभाशुभरूपं कर्मोदयं सविपाकाविपाकरूपेण सकामाकामरूपेण वि द्विधा निर्जरां चैव जानाति इति। . ___ एवं सर्वविशुद्धिपारिणामिकपरमभावग्राहकेण शुद्धोपादान -भूतेन शुद्धद्रव्यार्थिकनयेन कर्तृत्व-भोक्तृत्व-बंधमोक्षादिकारण -परिणाम-शून्यो जीव इति सूचितं। समुदाय-पातनिकायां पश्चाद्गाथाचतुष्टयेन जीवस्याकर्तृत्वगुण-व्याख्यानमुख्यत्वेन भी, स्वयं शुद्ध-उपादानरूप से करता नहीं है और वेदता नहीं है अथवा पाठान्तर : 'दिट्ठी खयं पि णाणं' उसका व्याख्यान - मात्र दृष्टि ही नहीं, परन्तु क्षायिकज्ञान भी निश्चय से कर्मों का अकारक तथा अवेदक भी है। वैसा होता हुआ (शुद्धज्ञानपरिणत जीव) क्या करता है ? [जाणदि य बंधमोक्खं] जानता है। किसको? बन्ध-- मोक्ष को। मात्र बन्ध-मोक्ष को नहीं, [कम्मुदयं णिज्जरं चेव] शुभ-अशुभरूप कर्मोदय को तथा सविपाक-अविपाकरूप से और सकाम-अकामरूप से दो प्रकार की निर्जरा भी जानता है। . सर्वविशुद्ध-पारिणामिक-परमभावग्राहक शुद्ध-उपादानभूत शुद्धद्रव्यार्थिकनय से जीव, कर्तृत्व-भोक्तृत्व से तथा बन्ध-मोक्ष के कारण और परिणाम से शून्य है, ऐसा समुदायपातनिका में कहा गया था। पश्चात् चार गाथाओं द्वारा जीव का अकर्तृत्वगुण के व्याख्यान की मुख्यता से सामान्य विवरण किया गया। तत्पश्चात्
SR No.007139
Book TitleGyanchakshu Bhagwan Atma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarilal Jain, Devendrakumar Jain
PublisherTirthdham Mangalayatan
Publication Year
Total Pages262
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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