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________________ वस्तुविज्ञानसार .. 43 को तो सुगम और निजपरिणाम को विषम समझता है ! स्वयं देखता है, जानता है; तथापि यह कहते हुए लज्जा भी नहीं आती कि आत्मा देखा नहीं जाता, जाना नहीं जाता...! जिसका जयगान भव्य जीव गाते हैं, जिसकी अपार महिमा को जानने से महा भव-भ्रमण दूर हो जाता है और परम आनन्द होता हैं - ऐसा यह समयसार अविकार (शुद्ध आत्मस्वरूप) जान लेना चाहिए। यह जीव अनादि काल से अज्ञान के कारण परद्रव्य को अपना करने के लिए प्रयत्न कर रहा है और शरीरादि को अपना बनाकर रखना चाहता है, परन्तु किसी भी परद्रव्य का परिणमन जीव के आधीन नहीं है; इसलिए अनादि से जीव के परिश्रम अर्थात् अज्ञानभाव के फल में, एक परमाणु भी जीव का नहीं हुआ।अनादि काल से देहदृष्टिपूर्वक शरीर को अपना मान रखा है किन्तु अभी तक एक भी रजकण न तो जीव का हुआ है और न होनेवाला है; दोनों द्रव्य त्रिकाल भिन्न हैं। जीव यदि अपने स्वरूप को यथार्थ समझना चाहे तो वह स्वोन्मुखी पुरुषार्थ के द्वारा अल्पकाल में समझ सकता है। जीव अपने स्वरूप को जब समझना चाहे, तब समझ सकता है। स्वरूप के समझने में अनन्त काल नहीं लगता और न इसमें दूसरों की आवश्यकता रहती है; इसलिए यथार्थ समझ सुलभ है। ___यथार्थ ज्ञान प्राप्त करने की रुचि के अभाव में ही जीव अनादि काल से अपने स्वरूप को नहीं समझ पाया है; इसलिए आत्मस्वरूप समझने की रुचि करो और ज्ञान करो, ऐसा वीतरागी सन्तों का उपदेश है।
SR No.007138
Book TitleVastu Vigyansar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarilal Jain, Devendrakumar Jain
PublisherTirthdham Mangalayatan
Publication Year
Total Pages138
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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