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________________ - अध्यात्म तत्त्व के असाधारण उत्तम व्याख्यानकार और आश्चर्यकारी प्रभावना उदय के धारक अध्यात्म युगसृष्टा महापुरुष थे। उनके इन प्रवचनों का अवगाहन करते ही अध्येता को उनके गाढ़ अध्यात्म प्रेम, शुद्धात्म अनुभव, स्वरूपसन्मुख ढल रही परिणति, वीतराग-भक्ति के रङ्ग से रङ्गा हुआ चित्त, ज्ञायकदेव के तल को स्पर्शता अगाध श्रुतज्ञान और सातिशय परम कल्याणकारी अद्भुत वचनयोग का ख्याल आ जाता है। ___पूज्य गुरुदेव ने अध्यात्म नवनीत पूर्ण इस वस्तुविज्ञान के सार को सर्व ओर से छानकर, विराट अर्थों को इन प्रवचनों में खोला है। अतिशय सचोट, पर सुगम ऐसे अनेक न्यायों द्वारा और प्रकृत विषयसङ्गत अनेक यथोचित दृष्टान्तों द्वारा पूज्य गुरुदेव ने वस्तुविज्ञान के अर्थ गम्भीर सूक्ष्मभावों को अतिशय स्पष्ट और सरल बनाया है। जीव को कैसे भाव सहज रहें, तब जीव पुद्गल का स्वतन्त्र परिणमन समझा कहा जाए, कैसे भाव रहें, तब आत्मा का यथार्थ स्वरूप समझा गिना जाए, भूतार्थ ज्ञायक निज ध्रुवतत्व का (अनेकान्त सुसङ्गत) कैसा आश्रय हो तो द्रव्यदृष्टि यथार्थ परिणमी मानी जाए, कैसे-कैसे भाव रहे, तब स्वावलम्बी पुरुषार्थ का आदर, 'सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र -तप-वीर्यादि की प्राप्ति हुई कहलाये - इत्यादि मोक्षमार्ग के प्रयोजनभूत विषयों को, मनुष्यजीवन में बनते अनेक प्रसङ्गों के सचोट दृष्टान्तों से ऐसे स्पष्ट किये हैं कि आत्मार्थी को उस-उस विषय का स्पष्ट भावभासन होकर अपूर्व गम्भीर अर्थ दृष्टिगोचर होते हैं और वह शुभभावरूप बन्धमार्ग में, मोक्षमार्ग की मिथ्याकल्पना छोड़कर, शुद्धभावरूप यथार्थ मोक्षमार्ग को समझकर सम्यक् पुरुषार्थ में जुड़ता है। इस प्रकार 'वस्तुविज्ञानसार' के स्वानुभूतिदायक गम्भीर भाव हृदय में सीधे उतर जाएँ - ऐसी असरकारक भाषा में अत्यन्त स्पष्टरूप से समझाकर गुरुदेव ने आत्मार्थी जगत पर अनहद उपकार किया है। यह परम पुनीत प्रवचन, स्वानुभूति के पन्थ को अत्यन्त स्पष्टरूप से प्रकाशित करते हैं, इतना ही नहीं, परन्तु साथ-साथ मुमुक्षुजीवों के
SR No.007138
Book TitleVastu Vigyansar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarilal Jain, Devendrakumar Jain
PublisherTirthdham Mangalayatan
Publication Year
Total Pages138
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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