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________________ वस्तुविज्ञानसार हु कुद्दिट्ठी' अर्थात् जो उसमें शङ्का करता है, वह प्रगटरूप में मिथ्यादृष्टि है अर्थात् सर्वज्ञ को नहीं माननेवाला है। 33 स्वामी कार्तिकेय आचार्य ने इन 321-322-323 वीं गाथाओं में जैनधर्म का गूढ़ रहस्य खोल दिया है । सम्यग्दृष्टि जीव भलीभाँति जानता है कि त्रैकालिक समस्त पदार्थों की अवस्था क्रमबद्ध है सर्वज्ञदेव और सम्यग्दृष्टि में इतना ही अन्तर है कि सर्वज्ञदेव समस्त द्रव्यों की क्रमबद्धपर्याय को प्रत्यक्षज्ञान से जानते हैं और सम्यग्दृष्टि धर्मात्मा समस्त द्रव्यों की क्रमबद्धपर्यायों को आगम प्रमाण से प्रतीति में लेता है अर्थात् परोक्षज्ञान से निश्चय करता है । सर्वज्ञ के वर्तमान राग-द्वेष सर्वथा दूर हो गये हैं, सम्यग्दृष्टि के अभिप्राय में भी राग-द्वेष सर्वथा दूर हो गये हैं । सर्वज्ञ भगवान केवलज्ञान से त्रिकाल को जानते हैं, सम्यग्दृष्टि जीव यद्यपि केवलज्ञान से नहीं जानते, तथापि वे श्रुतज्ञान के द्वारा त्रिकाल के पदार्थों की प्रतीति करते हैं; उनका ज्ञान भी निःशङ्क है । पर्याय, प्रत्येक वस्तु का धर्म है । वस्तु स्वतन्त्रतया अपनी पर्यायरूप होती है। जिस समय जो पर्याय होती है, उसको मात्र जानना ही ज्ञान का कर्तव्य है । जानने के उपरान्त 'यह पर्याय यों कैसे हुई?' ऐसी शङ्का करनेवाले को वस्तु के स्वतन्त्र 'पर्यायधर्म' का और ज्ञान के कार्य का पता नहीं है। ज्ञान का कार्य मात्र जानना है । जानने में ‘यह कैसे हुआ ?' इस प्रकार की शङ्का को स्थान ही कहाँ है ? शङ्का करना ज्ञान का स्वरूप ही नहीं है किन्तु 'जो पर्याय होती है, वह वस्तु के धर्मानुसार ही होती है, 'इसलिए जैसी होती है, उसी प्रकार उसे जानना ज्ञान का स्वभाव है । इस प्रकार ज्ञानस्वभाव का
SR No.007138
Book TitleVastu Vigyansar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarilal Jain, Devendrakumar Jain
PublisherTirthdham Mangalayatan
Publication Year
Total Pages138
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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