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________________ सर्वज्ञ के निर्णय में अनन्त पुरुषार्थ मुक्तिमण्डप के प्रीतिभोज में सर्वज्ञ भगवान के द्वारा दिव्यध्वनि में उच्च प्रकार के न्याय परोसे जाते हैं, जिन्हें पचाने से आत्मा पुष्ट होता है। 32 यदि तुझे सर्वज्ञ भगवान होना हो तो तू भी इस बात को मान ! जो इस बात को स्वीकार करता है, उसकी मुक्ति निश्चित है । लीजिये ! यह है मुक्तिमण्डप का प्रीतिभोज !! अब, गाथा 321-322 में जो वस्तुस्वरूप बताया है, उसकी विशेष दृढ़ता के लिए 323 वीं गाथा में कहते हैं कि जो जीव पूर्व गाथा में कहे गये वस्तुस्वरूप को जानता है, वह सम्यग्दृष्टि है और जो उसमें संशय करता है, वह मिथ्यादृष्टि है - एवं जो णिच्छयदो जाणदि दव्वाणि सव्वपज्जाए । सो सद्दिट्टी सुद्धो जो संकदि सो हु कुद्दिट्ठी ॥ 323 ॥ अर्थ - इस प्रकार निश्चय से सर्वद्रव्यों (जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश, काल) तथा उन द्रव्यों की समस्त पर्यायों को जो सर्वज्ञ के आगमानुसार जानता है, श्रद्धा करता है, वह शुद्ध सम्यग्दृष्टि है और जो ऐसी श्रद्धा नहीं करता, शङ्का - सन्देह करता है, वह सर्वज्ञ के आगम के प्रतिकूल है - प्रगटरूप में मिथ्यादृष्टि है । सर्वज्ञदेव ने केवलज्ञान के द्वारा जानकर, जिन द्रव्यों और उनकी अनादि-अनन्त काल की समस्त पर्यायों को आगम में कहा है, वे सब जिसके ज्ञान में और प्रतीति में जम गये हैं, वे 'सद्दिट्टी सुद्धो' अर्थात् शुद्ध सम्यग्दृष्टि हैं। पहली बात अस्ति की अपेक्षा से कही और फिर नास्ति की अपेक्षा से कहते हैं कि 'जो संकदि सो
SR No.007138
Book TitleVastu Vigyansar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarilal Jain, Devendrakumar Jain
PublisherTirthdham Mangalayatan
Publication Year
Total Pages138
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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