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________________ 22 सर्वज्ञ के निर्णय में अनन्त पुरुषार्थ प्रगट होने की तैयारी हो और सच्चे देव-गुरु आदि निमित्त न हों। जब उपादानकारण तैयार होता है, तब निमित्तकारण स्वयमेव आ जाता है, किन्तु कोई किसी का कर्ता नहीं होता। उपादान के कारण न तो निमित्त आता है और न निमित्त के कारण उपादान का कार्य होता है। दोनों स्वतन्त्ररूप से अपने-अपने कार्य के कर्ता हैं। अहो! वस्तु कितनी स्वतन्त्र है! समस्त वस्तुओं में क्रमवर्तित्व चल ही रहा है। जो पर्याय होनी है, वह होती ही रहती है। ज्ञानी जीव ज्ञात के रूप में जानता रहता है और अज्ञानी जीव कर्तृत्व का मिथ्याभिमान करता है। जो पर के कर्तृत्व का अभिमान करता है, उसकी पर्याय अज्ञानमय होती है और जो ज्ञाता रहता है, उसकी ज्ञानपर्याय क्रमशः विकसित होकर केवलज्ञान को प्राप्त हो जाती है। ___ सर्वज्ञदेव ने वस्तु की अनादि-अनन्त समय की पर्यायें जैसी जानी हैं, उनका क्रम नहीं बदलता। अनादि-अनन्त काल का जितना समय है, उतनी ही प्रत्येक वस्तु की पर्यायें हैं। वस्तु स्वयं अपने उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य से प्रत्येक समय की पर्यायरूप परिणमन करती हैं, इस क्रम से जितने समय हैं उतनी ही पर्यायें हैं। यदि कोई यह कहे कि मैं पर की पर्याय कर दूं तो इसका मतलब यह हुआ कि वह वस्तु के स्वतन्त्र परिणमन को नहीं मानता है। पर्याय के क्रम में परिवर्तन करने के लिए कोई भी समर्थ नहीं है। इस क्रमबद्धपर्याय के सिद्धान्त में केवलज्ञान का स्वीकार है। इसमें श्रद्धा-ज्ञान का अनन्त पुरुषार्थ है। जब अनादि-अनन्त अखण्ड द्रव्य को प्रतीति में लेते हैं, तब क्रमबद्धपर्याय की श्रद्धा होती है क्योंकि क्रमबद्धपर्याय का मूल तो वही है। जो जीव, स्वसन्मुख
SR No.007138
Book TitleVastu Vigyansar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarilal Jain, Devendrakumar Jain
PublisherTirthdham Mangalayatan
Publication Year
Total Pages138
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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