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________________ वस्तुविज्ञानसार 21 उसके बदले यह मानना कि मैं उसे बदल सकता हूँ, वह सर्वज्ञ के ज्ञान को यथार्थ न मानने के समान है। वस्तु की ही क्रमबद्ध अवस्था होती है, तब निमित्त उसे करता है अथवा निमित्त उसमें कोई परिवर्तन कर डालता है, यह बात कहाँ रही? निमित्त, पर का कुछ भी नहीं करता, तथापि जो यह मानता है कि मेरे से पर में कोई परिवर्तन होता है, वह सच्चे न्याय को नहीं मानता। द्रव्य की पर्याय द्रव्य में से ही आती है, उसके बदले जो यह मानता है कि पर में से द्रव्य की पर्याय आती है अर्थात् जो यह मानता है कि मैं पर की पर्याय का कर्ता हूँ, वह द्रव्य-पर्याय के स्वरूप को ही नहीं मानता। इस प्रकार विपरीत मान्यता में असत् का सेवन आ जाता है। वस्तु क्रमबद्धपर्यायरूप परिणमति है, उसका कर्ता दूसरा नहीं है। जैसे ज्ञान समस्त वस्तुओं को मात्र जानता है किन्तु किसी का कुछ करता नहीं है; इसी प्रकार परद्रव्य निमित्तमात्र होता है, वह उपादान में कुछ करता नहीं है। जिस समय स्वलक्ष्यी पुरुषार्थ के द्वारा आत्मा की सम्यग्दर्शन पर्याय प्रगट होती है, उस समय सच्चे देव-गुरु-शास्त्र आदि निमित्त होते हैं। प्रश्न - जीव को सम्यग्दर्शन प्रगट होने की तैयारी हो और सच्चे देव-गुरु-शास्त्र आदि निमित्त न मिलें तो सम्यग्दर्शन नहीं होता है न? उत्तर - यह हो ही नहीं सकता कि जीव को सम्यग्दर्शन
SR No.007138
Book TitleVastu Vigyansar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarilal Jain, Devendrakumar Jain
PublisherTirthdham Mangalayatan
Publication Year
Total Pages138
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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