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________________ सर्वज्ञ के निर्णय में अनन्त पुरुषार्थ कुछ नहीं करता, यह निश्चय करते ही सभी परद्रव्यों के परिणमन के कर्त्तत्व का अभिमान दूर हो जाता है, स्व-पर की भिन्नता का भाव होता है और मेरी अवस्था पर के कारण नहीं होती, इसलिए पराश्रयबुद्धि मिट जाती है। पहले विपरीत मान्यता के कारण पर की अवस्था में अच्छा -बुरा मानकर जो अनन्तानुबन्धी रागद्वेष करता था, वह दूर हो गया। इस प्रकार क्रमबद्धपर्याय की श्रद्धा करने पर परद्रव्य के कर्तृत्व से हटकर, स्वयं राग-द्वेषरहित अपने ज्ञातास्वभाव के सन्मुख आ गया अर्थात् अपने हित के लिए परसहाय की बुद्धि छूट गयी और ज्ञान अपनी ओर प्रवृत्त हो गया। अपने द्रव्य में भी एक के बाद दूसरी अवस्था क्रमबद्ध होती है। मैं तो ज्ञानस्वभाव का पिण्डरूप द्रव्य हूँ; वस्तु तो ज्ञाता ही है; विकारी अवस्था जितनी वस्तु नहीं है। अवस्था में जो राग-द्वेष होता है, वह परवस्तु के कारण नहीं किन्तु वर्तमान अवस्था की दुर्बलता से होता है; इस दुर्बलता की भी प्रधानता नहीं रही, किन्तु स्वभावसन्मुख पुरुषार्थ से परिपूर्ण ज्ञातास्वरूप में ही दृष्टि रही। उस स्वरूप के लक्ष्य से पुरुषार्थ की दुर्बलता का अल्पकाल में अभाव हो जाएगा। मेरी पर्याय मेरे द्रव्य में से आती है, परपदार्थ में से नहीं तथा एक पर्याय में से दूसरी पर्याय प्रगट नहीं होती; इसलिए अपनी पर्याय के लिए परद्रव्य की ओर अथवा पर्याय की ओर देखना नहीं रहा, किन्तु ज्ञातास्वरूपी अखण्ड द्रव्य की ओर देखना रहा। जब ऐसी दशा हो जाती है, तब समझना चाहिए कि उसने सर्वज्ञ का और सर्वज्ञ के ज्ञान के अनुसार क्रमबद्धपर्याय का निर्णय कर लिया है।
SR No.007138
Book TitleVastu Vigyansar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarilal Jain, Devendrakumar Jain
PublisherTirthdham Mangalayatan
Publication Year
Total Pages138
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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