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________________ वस्तुविज्ञानसार प्रश्न – जगत के पदार्थों की अवस्था क्रमनियमित होती है । जड़ अथवा चेतन इत्यादि में एक के बाद दूसरी अवस्था जैसी श्री सर्वज्ञदेव ने देखी है, उसी के अनुसार होती है, तब फिर इसमें पुरुषार्थ करने की बात ही कहाँ रही ? S उत्तर जब आत्मा के ज्ञानस्वभाव की ओर का पुरुषार्थ किया जाता है, तब ही सर्वज्ञ की और क्रमबद्धपर्याय की श्रद्धा होती है । जिसने अपने आत्मा में क्रमबद्धपर्याय का निर्णय किया कि अहो ! जड़ और चैतन्य सभी की अवस्था क्रमबद्ध स्वयं हुआ करती है, मैं पर में क्या कर सकता हूँ? मेरा ऐसा स्वरूप है कि पदार्थ में जैसा होता है, मैं वैसा ही जानता हूँ; ऐसे निर्णय में उस पर की अवस्था में अच्छा-बुरा मानना नहीं रहता; इस प्रकार कर्तृत्व छूट कर ज्ञातृत्व ही रहता है। ज्ञानस्वभाव की सन्मुखता से विपरीत मान्यता का और अनन्तानुबन्धी कषाय का नाश हो जाता है । अनन्त परद्रव्य के कर्तृत्व का महा मिथ्यात्वभाव दूर होकर, अपने ज्ञातास्वभाव की अनन्त दृढ़ता हो जाती है। इस प्रकार अपनी ओर का ऐसा अनन्त पुरुषार्थ सर्वज्ञ की प्रतीति में आ जाता है। है । समस्त द्रव्यों की अवस्था क्रमबद्ध होती है। मैं उसे जानता हूँ, किन्तु किसी का कुछ नहीं करता - ऐसी मान्यता के द्वारा जीव, मिथ्यात्व का नाश करके, पर से हटकर अपनी ओर झुकता सर्वज्ञदेव के ज्ञान में जो प्रतिभासित हुआ है, उसमें कोई अन्तर नहीं पड़ता; समस्त पदार्थों की समय-समय पर क्रमनियमित अवस्था होती है, वही होता है - ऐसे निर्णय में सम्यक् पुरुषार्थ किस प्रकार आया ? - यह बतलाते हैं । पर की अवस्था उसके क्रमानुसार होती ही रहती है, मैं पर का
SR No.007138
Book TitleVastu Vigyansar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarilal Jain, Devendrakumar Jain
PublisherTirthdham Mangalayatan
Publication Year
Total Pages138
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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