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________________ क्रिया के तीन प्रकार इस प्रकार यह चार क्रियाएँ हुई, तब तक तो धर्म नहीं हुआ है। जब धर्म सुनने के लक्ष्य से भी हटकर, स्वलक्ष्य की ओर उन्मुख हो और अपने शुद्ध आत्मस्वभाव का महिमापूर्वक निर्णय करे तो वह अविकारी क्रिया है और वही धर्म है। जड़ की क्रिया, आत्मप्रदेशों की क्षेत्रपरिवर्तनरूप क्रिया और शुभरागरूप विकारी क्रिया से धर्मक्रिया भिन्न है। इसी प्रकार किसी जीव के रुपया-पैसा कमाने इत्यादि की अशुभभावना हुई और शरीर की क्रिया उन कार्यों में हुई, तो वहाँ भी शरीर की क्रिया, जड़ की स्वतन्त्र क्रिया है, उससे जीव को लाभ -हानि नहीं होती और जो अशुभभाव हुए, वह जीव की विकारी क्रिया है, उससे जीव को पाप होता है। अशुभभावों के कारण भी जड़ की क्रिया नहीं होती। अशुभपरिणाम से पाप और शुभपरिणाम से पुण्य, इन दोनों का समावेश विकारी क्रिया में होता है और दोनों समय होनेवाली शरीर की क्रिया, वह स्वतन्त्र जड़ की क्रिया है। मेरे परिणामों के कारण जड़ की क्रिया हुई है - ऐसा मानना मिथ्या है और पुण्य परिणामों के कारण धर्म की क्रिया हुई है - ऐसा मानना भी मिथ्या है। किसी जगह शरीर दो घड़ी स्थिर होकर बैठा, वह तो जड़ की क्रिया है। यदि उस समय शुभपरिणाम हो तो वह पुण्य है और यदि धर्मस्थान में बैठकर भी घर इत्यादि के अशुभ विकार करता हो तो पाप है। पुण्य और पाप दोनों विकार हैं, उनसे धर्म नहीं होता; यदि उस समय शुद्ध आत्मप्रतीति विद्यमान हो तो उतने अंश में अविकारी धर्मक्रिया है, वह मोक्ष की उत्पादक क्रिया है और पुण्य-पाप दोनों
SR No.007138
Book TitleVastu Vigyansar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarilal Jain, Devendrakumar Jain
PublisherTirthdham Mangalayatan
Publication Year
Total Pages138
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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