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निश्चय
शुद्ध निश्चय नय तो शुद्धात्मा के अनुभव स्वरूप है। यहां गुणस्थानादि न झलक कर मात्र ज्ञाता-दृष्टापन ही झलकता है और उसी का अनुमनन-चिंतन होता है किंतु विकल्परूपी व्यवहार संपन्न कर फिर ध्यान स्वरूप निश्चय पर पहुंचता है वहां थक जाने पर फिर व्यवहार में आता हैं। दोनों नय अपने-अपने स्थान पर उपयोगी है। इस प्रकार अभ्यास द्वारा अशुद्धता को दूर कर शुद्धता पर आना,यह प्रत्येक साधक का मुख्य
कर्तव्य है। १७. जीव स्थान और उसके आश्रित वर्णादिक ये सभी
निश्चय से जीव के स्वरूप नहीं है । समयसार तो भावनात्मक ग्रंथ है। वैराग्यपूर्ण ज्ञान को ज्ञान कहा गया और उससे बंध का निरोध होता है।
१८. शुद्ध निश्चय नय की अपेक्षा से सब गुणस्थान सदा
अचेतन है। १९. जीव और अजीव जीवाजीवाधिकार रूप रंगभूमि में
निश्चय नय से श्रृंगार रहित पात्र के समान पृथक
होकर निकल गये। २०. धर्म में आत्मा निमित्त है। २१. शुद्ध निश्चय नय की अपेक्षा से कर्ता कर्म भाव रहित
जीव और अजीवके हैं।
२२. वीतरागता तो आत्मा का स्वभाव हैं । कर्ता कर्म की
प्रवृत्ति का अभाव हो जाने पर निर्विकल्प समाधि होती
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