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व्यवहार
४१. किंतु जैन मत में व्यवहार से जीव मिथ्यात्वादि चार
प्रत्ययही कर्म के कर्ता है। ४२. जीवों का अज्ञान भाव उपचार (व्यवहार) कथन जानने
से दूर होता है। ४३. जो पर द्रव्य के आश्रित हो उसे व्यवहार कहते हैं। ४४. अभूतार्थ नाम असत्यार्थ का है । अभूत अर्थात जो
पदार्थ मेंन पाया जावे और अर्थीत 'भाव'" उनको जो अनेक प्रकार की कल्पना प्रकाशित करे उसे अभूतार्थ कहते हैं। जीव और पुद्गल की सत्ता भिन्न है, स्वभाव भिन्न हैं, प्रदेश भिन्न हैं तथापि एक क्षेत्रावगाह संबंध का छलपाकर आत्म-द्रव्य से एकत्व रूप कहता
है।
४५. व्यवहार नय में पदार्थ अनेक रूप है व्यवहार से आत्मा
दर्शन, ज्ञान और चारित्र तीन भेद रूप (गुणरूप) है,
वह अभूतार्थ है। ४६. शरीर से तन्मय, राग, द्वेष मोह से मलिन कर्म-कर्म के
आधीन करनेवाला व्यवहार नय है। ४७. पं. जयचन्द्रजी श्री समयसार प्राभृत में कहते है कि
प्राणियों को भेदरूप व्यवहार का पक्ष तो अनादिकाल से ही विद्यमान है और इसका उपदेश भी बहुधा सभी प्राणि परस्पर करते हैं तथा जिनवाणी में शुद्ध नय का हस्तावलंबन समझकर व्यवहार का उपदेश बहुत
किया है किंतु इसका फल संसार ही है। ४८. धर्म, अर्धम आदि का श्रद्धान करना सम्यकत्व है,
अंगपूर्व का ज्ञान होनाज्ञान है और तप में प्रवृत्ति करना
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