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चिद्काय की आराधना/77
'सदानन्द स्वरूपोऽहम्' सदा रहता आनन्द जिसमें, वह मैं आतमा राम हूँ। आत्मानन्द में लीन चेतना, ज्ञानमय अभिराम हूँ।। इन्द्रिय सुख से भिन्न हूँ, पर नित्य निज सुख में लीन हूँ। बना रहे निज रूप मुझ में, नित्य ही उसकी खोज है।।
हे जीव! सम्पूर्ण अभ्यन्तर और बहिरंग परिग्रह मिथ्यात्व, क्रोध, मान, माया, लोभ, हास्य, रति, अति, शोक, भय, जुगुप्सा, वेद, राग व द्वेष तथा क्षेत्र, वस्तु, हिरण्य, सुवर्ण, धन, धान्य, दासी, दास, कुप्य और भांड को छोड़कर पूर्ण चारित्र का पालन कर तथा काम क्रोधादिक को नष्ट कर देने वाले . पवित्र ध्यान को धारण कर।
निश्चय नय से सदा तुम्हारी दिव्यकाय आनन्द पुंज है, आनन्द मयी है; भीतर आनन्द समुद्र उछल रहा है, फिर भी खेद है कि उसका बोध नहीं होने से तू उदास है, दुःखी है।
हे भाई! दुःखों का मूल कारण परिग्रह है, परिग्रह पिशाच ही तेरे शाश्वत आनन्द का बाधक है, उसे छोड़। अरे भाई! इस साढ़े तीन हाथ के शरीर रूपी देवालय में ही तेरी स्वसंवेदनगोचर चिद् देह है, जो देव है, स्व-संवेदन से उसका अनुभव कर। बाह्य देवालय में तेरा देव नहीं है। अपने को भूला हुआ तू कहाँ भटक रहा है? तेरा देव इसी पुद्गल देह में विराजमान है और स्वसंवेदन से अनुभव में आता है। तेरा देव और कोई नहीं है, तू ही तेरा देव है। तू अपनी ही दिव्यकाय को भूला हुआ है। अपने ही भगवान का अनादर कर रहा है। अब तू अंतर्दृष्टि कर के अपनी दिव्य देह की प्रतीति कर और उस का ही अनुभव कर। तू अपनी ही चैतन्य काया का अनुभव नहीं करता है। यही तेरी बड़ी भूल है, जिससे तू चौरासी लाख योनियों में भ्रमण कर रहा है। तू तेरा ही आत्मघात कर रहा है। अगर यही दशा रही तो तुझे आगे नरक-निगोद जाना पड़ेगा और अनन्त काल संसार में भटकना पड़ेगा।