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72/चिद्काय की आराधना
'शुद्धाखंडैकमूर्त स्वरूपोऽहम्' भेदज्ञान साबून भयो, समरस निरमल नीर।
धोबी अन्तर आतमा, धोवे निज गुण चीर।। कपड़ा स्वभाव से स्वच्छ है, उस पर धूल आदि लग जाने से वह मैला हो जाता है। बुद्धिमान पुरुष उस कपड़े को साबुन व पानी के प्रयोग के द्वारा धोकर पुनः स्वच्छ कर उसका उपयोग करता है। ठीक इसीप्रकार यह चैतन्य आत्मा स्वभाव से निर्मल है, शुद्ध है, विमल है, इस पर अनादि से द्रव्यकर्म की धूल लगी होने से मैला है। इसने कभी ध्यान रूपी साबुन व समता रूपी जल लेकर इस पर लगी धूल को छुड़ाया नहीं।
आचार्य संबोधन करते हैं कि हे आत्मन्! तुम यद्यपि स्वभाव से शुद्ध हो, परन्तु ये जो द्रव्यादि कर्म धूलवत तुम्हारे साथ चिपट रहे हैं, उन्हें नष्ट किये बिना शुद्ध स्वभाव प्राप्त नहीं होगा। अतः अपने उपयोग को अपनी चिद्काय में जोड़ने की आवश्यकता है। इसलिये ध्यान मुद्रा में बैठकर अपने चिद् अंग-उपांगों में लीन रहने का अभ्यास करो। अपनी चिद्काय के नाभि, हृदय, मस्तक, नेत्र, कर्ण, मुंह, नासाग्र, ललाट, तालु, भ्रूमध्य आदि स्थान ही तुम्हारे ध्यान के ध्येय हैं। इन स्थानों पर उपयोग को एकाग्र करना ध्यान है, जिससे कर्मों का क्षय होता है और अरिहंत अवस्था की प्राप्ति होती है। हे भव्य! तुम सदा अपने प्रदेशों से रचित अवयवों में लीन रहो।
तेरा चैतन्य आत्मा त्रिकाल शुद्ध है, सदा एक है और चिन्मूर्ति स्वरूप है। आचार्य देव कहते हैं कि अंतर्दृष्टि के द्वारा आत्मा का ग्रहण करना चाहिए। जिसने अंतर्दृष्टि के द्वारा अपनी चिद्काय भगवान आत्मा को अनुभव में लिया है, वह कभी भी पर पदार्थों को या पर भावों को आत्मस्वभाव के रूप में ग्रहण नहीं करता। वह अपने ही जीवास्तिकाय को ही अपने रूप में जानकर उसका ग्रहण करता है। इसलिये वह सदा ही अपनी दिव्य काया में निवास करता है। वह एक समय के लिये भी अपनी चिद्काया को नहीं भूलता।