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70/चिद्काय की आराधना
'निरवद्य स्वरूपोऽहम्' . पाप रागादिक कहे, क्रोध लोभ अरु मान।
इनमें चेतन है नहीं, मैं निरवद्य महान।। मेरा आत्मा पाप रहित, निष्पाप, सावध रहित है। मैं निरवद्य स्वरूप हूँ।
हे मुक्ति के पथिक! निरंतर भावना करो कि हिंसादि पाप परिणाम, राग, द्वेष, क्रोधादि विभाव परिणाम मेरे स्वभाव नहीं हैं। मैं इनसे भिन्न निरवद्य स्वरूप हूँ। ख्याति, पूजा, लाभ, निदान, त्रयगारव, त्रयदंड आदि सावध परिणाम मेरे स्वभाव नहीं हैं। मैं इनसे भिन्न निरवद्य स्वरूप हूँ। __ अहो! हमें चैतन्य भगवान पूर्णानन्द के नाथ निज चिद्काय को पहिचानने का सुयोग प्राप्त हुआ है। प्रत्येक क्षण अमूल्य है। आत्मप्रतीति के बिना उद्धार का कोई दूसरा मार्ग नहीं है। इसलिये अभी ही अंतर्मुखता के अभ्यास के द्वारा आत्मप्रतीति कर लेनी चाहिए। अंतर्दृष्टि से जो अनुभव में आ रहा है वही आत्मा है। आत्मा की रुचि होने पर कर्म का बल नष्ट हो जाता है। यह कर्म अपने चैतन्य की शोभा नहीं, किन्तु कलंक है। मेरा चेतन तत्त्व उससे भिन्न असंग है।
मेरा चेतन तत्त्व, भगवान आत्मा इसी देहरूपी देवालय में पाँव से लेकर मस्तक तक अमूर्तिक अंसख्य प्रदेशों का पुंज विराजमान है। जिनवर की तरह ध्यान मुद्रा में बैठकर अपने उपयोग को अपनी चिद्काया में जोड़ने का प्रतिदिन अभ्यास करो। इससे कर्मों का नाश होगा और भगवान आत्मा पर्याय में प्रगट होगा। यही एक उपाय है। इस प्रकार प्रतिदिन ध्यान का अभ्यास करने पर स्वभाव की रुचि होगी। यही सम्यग्दर्शन है, यही धर्मध्यान है, शुद्धोपयोग है।
हे भव्य! निरवद्य स्वरूप प्रगट करने के लिये इन्द्रियों से जानना, मन से विचार करना, वचन और काय की चेष्टा करना छोड़कर एक अपनी दिव्यदेह का अनुभव करो। इससे दिव्यदेह के दिव्य सुख का अनुभव होगा और हिंसादि पाप परिणाम उत्पन्न नहीं होंगे।